प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भारत सरकार के गंगा शुद्धिकरण अभियान की शुरुआत बड़े धूमधाम से 14 जून 1986 को वाराणसी से की थी। वरुणा और अस्सी नदियों के बीच तथा गंगा के तट पर बसा यह नगर भारत के ही नगर संचार के प्राचीनतम नगरों में से एक है। यह नगर विभिन्न धर्मों, आध्यात्मिक साधनाओं तथा विद्यार्जन का केंद्र भी रहा है। इसके अलावा यह महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र भी रहा है। यहां के रेशम, बुने हुए वस्त्र, साड़ियां, कालीन, आभूषण, खिलौने और हस्तशिल्प पूरे संसार में प्रसिद्ध है। नगर के दक्षिण पश्चिम में रेलवे के डीजल लोकोमोटिव वर्क्स कारखानों और पूरब में रामनगर औद्योगिक क्षेत्र स्वतंत्रता के बाद हुए विस्तार की देन है। सन् 1911 में नगर की आबादी 2.17 लाख थी जो 1986 में बढ़कर 10 लाख से अधिक हो गयी है।
औद्योगीकरण और शहर के बड़े पैमाने पर विस्तार के बावजूद नागरिक सुविधाओं के आधारभूत ढांचे में गुणात्मक सुधार नहीं हो सका। नगर की सीवरेज प्रणाली 75 साल पहले बनायी गयी थी और भूमिगत नाले तो लगभग 200 से 300 साल तक पुराने हैं। देखरेख की कमी और बढ़ती आबादी से यह सब व्यवस्था अब ध्वस्त हो चुकी है। अस्सीघाट से राजघाट के बीच सात बड़े और साठ छोटे नाले दस करोड़ लीटर से अधिक मलजल रोज गंगा में डालते हैं। इनमें से कई नाले घाटों के पास गिरते हैं। नगर के पेयजल का स्रोत अस्सी नदी, नाले का रूप लेती जा रही है। इसमें रेल कारखाना और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की गंदगी गिरती है।
वाराणसी में गंगा को गंदा करने का बहुत बड़ा कारण यहां सालाना लगभग 30 हजार शवों का जलना और उनकी राख तथा जले-अधजले अंग नदी में प्रवाहित कर देना है। बच्चों, साधुओं, लकड़ी न जुटा पाने वाले गरीबों के और पोस्टमार्टम वाले शव नदी में सीधे बहा दिये जाते हैं। केन्द्रीय गंगा प्राधिकरण ने अनुमान लगाया है कि प्रतिवर्ष लगभग साठ हजार जानवरों के शव भी गंगा में बहाये जाते हैं।
इन सबके अतिरिक्त यहां उद्योगों का दूषित कचड़ा भी नदी में ही गिरता है। वाराणसी में गंगा को प्रदूषित करने वाले बड़े कारखाने निम्नलिखित हैं-
1- डीजल लोकोमोटिव वर्क्स।
2- मेसर्स बसंत पेपर मिल।
3- काशी चीनी मिल।
इनके अलावा औद्योगिक क्षेत्र रामनगर के अनेक छोटे-छोटे उद्योग भी गंगा को प्रदूषित करते हैं।
यह धीमा जहर नदी की वनस्पतियों तथा जीव-जंतुओं पर क्या असर डालता है यह बताने के लिए संकट मोचन निधि वाराणसी के स्वच्छ गंगा अभियान की स्मारिका 1986 के एक लेख का उदाहरण देना उपयुक्त होगा।
प्रयागराज विश्वविद्यालय में पर्यावरण विज्ञान की शोध छात्रा संगीता सिंह ने "पवित्र गंगा प्रदूषण के घेरे में" शीर्षक से प्रकाशित अपने लेख में चौकाने वाली जानकारी दी है कि "गंगा के पानी की विषाक्ता के लिए चूहों पर प्रयोग किया गया है। जिन चूहों को गंगा के अशुद्ध पानी का लगातार सेवन कराया गया उनकी 10वीं पीढ़ी के बच्चों की पूंछ, आंख तथा अन्य अंगों में विकृतियां पायी गयी।
अब इस बात का सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि गंगा के सहारे जीने वाले उन मछुवारों और गांववालों की भावी पीढ़ियां कैसी होंगी जिनके लिए गंगा पीने, नहाने और सींचने का एक मात्र स्रोत है। ऐसे विषाक्त जल में पली मछलियां भी निश्चय ही अपने खाने वालों को कुछ न कुछ देंगी।
वाराणसी में गंगा का प्रदूषण रोकने के लिए तीन सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स लगाने का प्रस्ताव है। एक काशी हिन्दू विवि में, दूसरा डीजल लोकोमोटिव वर्क्स में और तीसरा दीनापुर में। इन तीनों की क्षमता कुल मिलाकर 10.5 करोड़ ली. प्रतिदिन होगी। और ये संयंत्र बन जाने के बाद भी चार करोड़ लीटर मलजल गंगा नदी में जायेगा। आबादी बढ़ने पर सन् 2000 ई. तक इसकी मात्रा लगभग 7 करोड़ ली. हो जायेगी।
वाराणसी के बाद उत्तर प्रदेश में गंगा के औद्योगिक प्रदूषण के तीन और स्रोत हैं। एक गाजीपुर के कारखाने और दूसरा गोंडा तथा गोरखपुर के कारखाने जिनका कचड़ा राप्ती और सरयू से होकर गंगा में आता है। तीसरा स्रोत गोमती है जो पीलीभीत, शाहजहांपुर, उन्नाव, हरदोई, सीतापुर, खीरी, लखनऊ, सुल्तानपुर, बाराबंकी, जौनपुर तथा प्रतापगढ़ का शहरी एवं औद्योगिक कचड़ा सीधे या सहायक नदियों के माध्यम से लाती हैं।
गाजीपुर में नंदगंज सिहोरी शुगर मिल, सरकारी अफीम कारखाना और मेसर्स वीवीके डिस्टिलरी प्रमुख प्रदूषणकारी उद्योग हैं।
इस तरह गंगा उत्तर प्रदेश में अपने लगभग डेढ़ हजार किमी लंबे प्रवाह में ढेर सारा जहरीले प्रदार्थ लेकर बिहार में प्रवेश करती है। गंगा में जगह-जगह गिरने वाली यह गंदगी अनेक प्रकार की मछलियों को ऊपर पहाड़ तक आने से भी रोकती है।
यह शोध चार भागों में है, इसमें उत्तर प्रदेश में बहने वाली गंगा का एक वृहद अध्ययन किया गया है -
1- संदर्भ गंगा: गंगा में औद्योगिक प्रदूषण (भाग 1)
2 - संदर्भ गंगा : कानपुर गंगा में औद्योगिक प्रदूषण (भाग 2)
3 - संदर्भ गंगा : प्रयागराज गंगा में औद्योगिक प्रदूषण (भाग 3)