हिमालय और एशिया के ऊंचे पर्वतीय क्षेत्र दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण जल प्रणालियों का घर हैं। यहां बहने वाली नदियां करोड़ों लोगों को पानी, भोजन और ऊर्जा प्रदान करती हैं। पर, ग्लोबल वॉर्मिंग और जलवायु परिवर्तन के चलते पिघलते ग्लेशियर और बारिश के बदलते पैटर्न से इन नदियों की राहें बदल रही हैं।
नदियों के प्रवाह में हो रहा यह बदलाव भारत, चीन, नेपाल सहित इस क्षेत्र के अन्य देशों में बिजली उत्पादन, पानी की उपलब्धता जैसी चीजों को प्रभावित कर करोड़ों लोगों की ज़िंदगियां मुश्किल बना सकते हैं। हाल ही में यूनिवर्सिटी ऑफ मैसाचुसेट्स एम्हर्स्ट के वैज्ञानिकों के एक अध्ययन में यह बात सामने आई है।
वैज्ञानिकों की टीम ने 2004 से 2019 के बीच के 15 वर्षों में एशिया की 1.14 लाख से अधिक नदियों व उनकी सहायक धाराओं के प्रवाह में बड़े बदलाव दर्ज़ किए हैं। इन बदलावों की वजह है ग्लेशियरों का तेज़ी से पिघलना और हाल में बारिश के पैटर्न में हुए बदलाव।
अध्ययन के नतीजे दर्शाते हैं कि एशिया में बहने वाली 10% यानी करीब 11,113 नदियों के जल प्रवाह में वृद्धि हुई है। नदियों के पानी में हुई इस बढ़ोतरी का एक बड़ा हिस्सा बारिश के बजाय ग्लेशियरों के पिघलने से आ रहा है। यानी इसकी वजह ग्लोबल वॉर्मिंग है। बढ़ते तापमान के साथ जिस तेज़ी से ग्लेशियर पिघल रहे हैं उससे इन नदियों में प्रवाह बढ़ रहा है।
यह अध्ययन बताता है कि नदियां जलवायु में आते बदलावों के प्रति बेहद संवेदनशील है। सबसे ज़्यादा असर एशिया के ऊंचे पहाड़ी क्षेत्रों के ऊपरी हिस्सों और छोटी नदियों पर पड़ा है। इन इलाकों में बहने वाली सबसे प्रमुख नदियों में सीर दरिया सिंधु, यांग्त्से और यलो रिवर शामिल हैं।
इस अध्ययन में भारत के अलावा चीन, नेपाल, पाकिस्तान, ताजिकिस्तान, उज़्बेकिस्तान, कज़ाखस्तान, और आसपास के कुछ देश शामिल हैं। नदियों के बहाव में हो रहे इस बदलाव का व्यापक असर यहां रहने वाले करोड़ों लोगों के जीवन पर पड़ रहा है, क्योंकि ये लोग कृषि से लेकर अपनी रोजमर्रा की जरूरतों और पीने के पानी के लिए पहाड़ी क्षेत्रों से निकलने वाली इन नदियों पर ही निर्भर हैं।
रिसर्च में इन नदियों में सालाना औसतन 8% तक की वृद्धि दर्ज़ की गई है। बड़ी नदियों जैसे यांग्त्ज़ी (Yangtze) में यह वृद्धि सालाना 2% से भी अधिक रही, जो प्रति सेकंड लगभग 5,300 गैलन (1 गैलन = 3.78 लीटर) अतिरिक्त पानी के बराबर है। इस प्रवाह में वृद्धि का अर्थ है कि नदियों की धारा की रफ़्तार और शक्ति (stream power) पहले से कहीं अधिक हो गई है। इसलिए, इससे मिट्टी के कटाव और पहाड़ी इलाकों में भूस्खलन जैसी घटनाएं बढ़ने की भी आशंकाएं प्रबल हुई हैं।
रिसर्च में एक दिलचस्प बात यह सामने आई है कि भारतीय महाद्वीप के गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना बेसिन के कुछ हिस्सों और हिमालय के निचले इलाकों में इन नदियों के जल प्रवाह में कमी देखी गई है, जबकि दक्षिण-पश्चिमी गैर-हिमनद क्षेत्रों में प्रवाह बढ़ रहा है।
खेती पर पड़ रहा बुरा असर
नदियों के जल प्रवाह में हो रहे बदलावों का असर खेती-बाड़ी पर भी व्यापक रूप से पड़ रहा है। मैदानी इलाकों और नदियों के डेल्टा व बेसिन में प्रवाह घटने से किसानों को खेती के लिए पर्याप्त पानी नहीं मिल पा रहा है। इसके विपरीत पहाड़ी इलाकों व तराई वाले इलाकों में नदियों की रफ़्तार में बढ़ोतरी होने से मिट्टी के कटाव की समस्या उत्पन्न हो रही है। खेतों की उपजाऊ मिट्टी की ऊपरी परत नदियों के पानी के साथ बह जा रही है। इसके कारण किसानों को खेतों की उर्वरता बनाए रखने के लिए ज्यादा मात्रा में खाद का इस्तेमाल करना पड़ रहा है, जिससे उनकी खेती की लागत बढ़ रही है।
कृषि उत्पादन में भी कमी आ रही है, क्योंकि उर्वरकों के इस्तेमाल के बावज़ूद मिट्टी की उर्वरता को पुराने स्तर तक पहुंचाने में समय लगता है। हालांकि पानी का अतिरिक्त प्रवाह कुछ इलाकों में किसान को तात्कालिक स्तर पर कुछ अल्पकालिक लाभ भी दे रहा है, क्योंकि इससे उन्हें सिंचाई के लिए अतिरिक्त जल मिल रहा है, पर इसका दीर्घकालिक प्रभाव नकारात्मक ही होगा, क्योंकि प्रवाह में यह बढ़ोतरी ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने के कारण हो रही है। ग्लेशियर जैसे-जैसे सिकुड़ते जाएंगे, पानी की यह अतिरिक्त आपूर्ति न केवल घटने लगेगी, बल्कि इससे जल संकट उत्पन्न होने का खतरा भी है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि भविष्य में गर्मियों के मौसम में सूखे की स्थिति और पानी की किल्लत बढ़ सकती है। ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठ रहा है कि क्या ये हिमनद आने वाले दशकों में भी पर्याप्त मात्रा में पानी उपलब्ध करा पाएंगे? ग्लेशियरों के तेज़ी से पिघलने के चलते दीर्घकाल में पानी की उपलब्धता घटने का सीधा असर कृषि उत्पादन पर भी पड़ेगा।
नदियों के प्रवाह में बदलाव से जहां पानी की मात्रा घट-बढ़ रही है, वहीं कई बार नदियों के मार्ग में भी बदलाव देखने को मिल रहे हैं। नदियों का रास्ता बदल जाने से कई ऐसे क्षेत्रों के किसानों को अब खेती के लिए पानी नहीं मिल पा रहा है, जो दशकों से नदी के पानी से सिंचाई करके ही कृषि कर रहे थे। दूसरी ओर, नदियों का बहाव नए इलाकों में होने से वहां भारी मात्रा में मिट्टी के कटाव और अपरदन (erosion) की समस्या देखने को मिल रही है। गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी के तराई वाले इलाकों में तो कई जगहों पर छोटी जोत वाले किसानों की पूरी खेती ही इस कटाव की चपेट में आ कर बर्बाद हो गई है।
जलापूर्ति और औद्योगिक उत्पादन पर भी असर
नदियों के प्रवाह में बदलाव का असर जल आपूर्ति जैसी ज़रूरी व्यवस्था और औद्योगिक उत्पादन जैसे अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले क्षेत्रों पर भी पड़ रहा है। जल प्रवाह में बढ़ोतरी होने पर मिट्टी के कटाव के कारण नदियों के पानी के साथ सिल्ट बह कर आ रहा है, जो पानी की गुणवत्ता को खराब कर रहा है। पानी में मिट्टी की अधिकता के कारण पानी को साफ करके सप्लाई लायक बनाने में वाटर ट्रीटमेंट प्लांटों को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।
अमेरिका के टैक्सस में किए गए अंतरराष्ट्रीय शोध की रिपोर्ट के मुताबिक नदी के जल में तलछट और निलंबित-कणों की अधिकता जल-शोधन के लिए वाटर ट्रीटमेंट प्लांट की कैमिकल ट्रीटमेंट की लागत को बढ़ा देती है। अमेरिका के एक अध्ययन में पाया गया कि पानी में गंदगी बढ़ने से ट्रीटमेंट की लागत लगभग 95 डॉलर प्रति मिलियन गैलन (लगभग 3,785 m³) तक बढ़ जाती है, जबकि गंदगी के सामान्य स्तर वाले पानी में यह लागत 75 डॉलर के असापास रहती है। ट्रीटमेंट कॉस्ट में इस बढ़ोतरी के चलते साफ जल की कीमत में लगभग 26% की वृद्धि होती है।
इसके अलावा, तलछट के बढ़ने से नदियों व जलाशयों की जल भंडारण क्षमता में भी 38 से 40% तक की कमी आती है। इसके विपरीत जिन इलाकों में प्रवाह घट रहा है, वहां जलापूर्ति के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध नहीं हो पा रहा है।
पानी घटने से औद्योगिक इकाइयों को उत्पादन संबंधी ज़रूरतों के लिए पानी नहीं मिल पा रहा है। पानी कम मिलने पर उत्पादन के लिए जरूरी प्रक्रियाएं धीमी पड़ जाती हैं या कई बार ठप भी हो जाती हैं। दूसरी ओर, नदियों का प्रवाह बढ़ने पर मिट्टी युक्त गंदा पानी मिलने से इसका इस्तेमाल कर पाना मुश्किल हो रहा है। उद्योगों में पानी का इस्तेमाल बॉयलर्स को चलाने, कूलिंग और साफ-सफाई जैसी प्रक्रियाओं में होता है। इसमें गंदगी युक्त पानी का इस्तेमाल उद्योगों के लिए हानिकारक हो सकता है। इसलिए उद्योगों को ऐसे पानी ट्रीटमेंट करना होता है, जिससे उत्पादन लागत बढ़ जाती है।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण 2022 में पड़ोसी देश चीन में देखने को मिला, जब यांग्त्ज़े नदी के प्रवाह में बदलाव के चलते नदी का जलस्तर नाटकीय रूप से गिर गया। कैमिकल एंड इंजीनियरिंग न्यूज़ की रिपोर्ट के मुताबिक यह संकट विशेषकर सिचुआन प्रांत में मौजूद भारी उद्योगों के लिए सबसे चुनौतीपूर्ण साबित हुआ, जहां लगभग 80% बिजली हाइड्रोपावर से मिलती है।
नदी में पानी की कमी ने ऊर्जा उत्पादन को पटरी से उतार दिया और राज्य की सैकड़ों फैक्ट्रियों तथा घरेलू उपयोगकर्ताओं को बिजली आपूर्ति सीमित कर दी गई। यांग्त्ज़े नदी में जलस्तर में गिरावट ने जलमार्ग से होने वाले माल परिवहन पर भी असर डाला, क्योंकि नदी में पानी कम होने के कारण मालवाहक जहाजों को कम माल लेकर चलना पड़ा।
इससे पहले 2018 में यूरोप की राइन नदी के जलस्तर में इसी तरह की गिरावट के दौरान बीएएसएफ कंपनी को लगभग 25 करोड़ यूरो का वित्तीय नुकसान झेलना पड़ा और जर्मनी का औद्योगिक उत्पादन एक महीने में लगभग 1% तक घट गया। ऐसा ही मामला 2018 में भारत के महाराष्ट्र में देखने को मिला जब वर्धा नदी की सहायक नदी ईराई का जल स्तर प्रवाह में बदलाव और मानसूनी असंतुलन के कारण गिर गया।
डब्लूआरआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक इसके कारण चंद्रपुरा पावर स्टेशन को अपना बिजली उत्पादन घटाना पड़ा और कई यूनिट्स को कुछ समय के लिए बंद करना पड़ा, क्योंकि प्लांट को बॉयलरों में स्टीम बनाने और कूलिंग के लिए पर्याप्त पानी नहीं मिल पा रहा था।
हाइड्रो पावर स्टेशनों की बढ़ रही मुश्किलें
नदियों के प्रवाह में हो रहे इन बदलावों का असर जलविद्युत परियोजनाओं पर भी पड़ रहा है। नेपाल जैसे देश में जहां बिजली की 80% ज़रूरत हाइड्रो पावर संयंत्रों से ही पूरी होती है, वहां यह एक बड़ी चुनौती है। भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में भी ऐसी ही परेशानियां पेश आ रही हैं। नदी का प्रवाह घटने से टर्बाइनों को चलाने में हो रही दिक्कत के चलते बिजली उत्पादन घट रहा है।
दूसरी ओर, प्रवाह बढ़ने से एक दूसरे तरह की समस्या उत्पन्न हो रही है। नदी में प्रवाह बढ़ने पर नदी की धाराएं काफी शक्तिशाली हो जाती हैं। अध्ययन के मुताबिक कई जगह तो धारा की शक्ति में और पानी की मात्रा में इतनी बढ़ रही है कि यह बांधों की मौजूदा क्षमता और मूल इंजीनियरिंग मानकों से ज़्यादा हो गई है।
इससे भारी गाद और बड़े-बड़े पत्थर भी बांधों की ओर बह कर आ रहे हैं। बांधों में सिल्ट और भारी पत्थरों के जमा जाने से जलाशयों की क्षमता घट जाती है। इसके अलावा, पत्थर बैराज के गेटों और टर्बाइनों को भी नुकसान पहुंचाते हैं। कई बार इसे पावर प्लांट के संचालन में रुकावट आ जाती है, जिससे विद्युत उत्पादन सीधे तौर पर प्रभावित होता है। इससे हाइड्रो पावर प्लांट्स के रख-रखाव और परिचालन लागत में भी इज़ाफा हो रहा है, जो बिजली उत्पदन की लागत को बढ़ा रहा है।
पारिस्थितिक तंत्र के लिए भी खतरा
नदियों के प्रवाह में बदलाव के कारण बड़े भौगोलिक क्षेत्रों के पारिस्थितिक तंत्र में भी व्यवधान उत्पन्न हो रहे हैं। खासतौर पर नदियों पर निर्भर पारिस्थितिक तंत्रों पर इसका सबसे ज़्यादा और सीधा असर देखने को मिल रहा है। एडवांसिंग अर्थ एंड स्पेस साइंस की रिपोर्ट के मुताबिक विशेष रूप से ठंडे पानी की मछलियों, पर्वतीय इलाकों में पाए जाने वाले जलीय जीवों और जलीय पौधे इससे बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं।
नदियों का बढ़ा हुआ प्रवाह और तलछट उनके प्राकृतिक आवास को नुकसान पहुंचा रहा है। उदाहरण के लिए एफएओ की रिपोर्ट बताती है कि हिमालयी क्षेत्र में ठंडे पानी की मछलियों की कॉमन स्नो ट्राउट, स्किज़ोथोरैक्स (Schizothorax), डिप्टीकस मैक्यूलैटस और स्किज़ोथोरैक्स लॉन्गिपिनिस जैसी प्रजातियां मिट्टी के कटाव और तलछट बढ़ने के कारण अपने प्राकृतिक आवास और प्रजनन स्थल खो रही हैं। नतीजतन, मछलियों की संख्या में कमी देखने को मिल रही है।
रिपोर्ट बताती है कि नदियों के प्रवाह में बदलाव पानी के तापमान और भोजन की उपलब्धता जैसी पर्यावरणीय दशाओं को बदल देता है। यह बदलाव इन मछलियों के जीवन चक्र और अस्तित्व को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है, क्योंकि ये मछलियां 0°C से 20°C तक की विशेष तापमान सीमा के भीतर जीवित रहने में सक्षम हैं। साथ ही, इन प्रजातियों के लिए लगभग 0.5 से 1.5 मीटर प्रति सेकंड का जल प्रवाह उपयुक्त माना जाता है, क्योंकि इससे उन्हें पर्याप्त ऑक्सीजन और भोजन उपलब्ध होता है।
पानी के प्रवाह और तापमान में बदलाव इन मछलियों के जीवन चक्र और अस्तित्व को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर रहे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक अगर मौजूदा जलवायु परिवर्तन के चलते नदियों के प्रवाह में बदलाव जारी रहा, तो अगले 25 वर्षों में यानी 2050 तक इन मछलियों के आवास में लगभग 16.3 % और 2070 तक लगभग 26.6 % तक की कमी देखने को मिल सकती है।
प्रवाह में परिवर्तन का प्रभाव केवल मछलियों तक सीमित नहीं हैं। रिसर्च गेट में 'रिवर्स ऑफ द एशियन हाईलैंड्स फ्रॉम डीप टाइम टू द क्लाइमेट क्राइसिस' शीर्षक से प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक जलीय पेड़ों और पौधों से लेकर चट्टानों के आसपास रहने वाले जीव ऐसे आवासों को नष्ट होते देख रहे हैं, जो साफ़ पानी और स्थिर प्रवाह पर निर्भर हैं। उदाहरण के लिए पूर्वीय हिमालयी क्षेत्र में पाए जाने वाले यूरेशियन उदबिलाव और स्मूद कोटेड ऑटर्स ऐसे पारिस्थितिक तंत्र में रहते हैं, जहां पानी साफ़ होता है, ताकि वे अपने शिकार को देख सकें और प्रजनन कर सकें।
प्रवाह में तेज़ी आने से पानी में बढ़ता तलछट और पानी की गुणवत्ता में गिरावट उनके जीवन केे लिए खतरनाक साबित हो रहा है। इसी तरह, जैसेडेसमैन (गैलेमिस पाइरेनिकस), वॉटर श्रू (नियोमिस फोडिएन्स) जैसे, ठंडे जल में रहने वाले अर्ध-जलीय स्तनधारी भी ऐसे जीव हैं, जिन्हें साफ़, तेज़ बहते और ठंडे पानी की ज़रूरत होती है। कई इलाकों में इनका अस्तित्व भी खतरे में पड़ गया है।
हिमालयी नदियों में पाई जाने वाली हाइड्रिला वर्टिसिलाटा और पोटामोगेटन क्रिस्पस जैसी अनेक जलीय वनस्पतियों की प्रजातियां भी तलछट और प्रवाह में बदलाव से बुरी तरह प्रभावित हो रही हैं, जिसके कारण इनका प्राकृतिक विस्तार और जैव विविधता संकट में पड़ गई है।
यूरोप की ओडर नदी में भी प्रवाह घटने से हुई पानी की कमी के कारण कई बार बड़ी तादाद में मछलियां मरी हुई पाई गईं हैं। इसी तरह सीएंडईएन की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका की बीयर, वेबर और जॉर्डन नदियों के प्रवाह में कमी के कारण इनसे बनने वाली ग्रेट साल्ट लेक के 2022 में काफी सिकुड़ जाने से उसके पारिस्थितिक तंत्र पर भी बुरा असर देखने को मिला।
पलायन और अन्य सामाजिक-आर्थिक प्रभाव
नदियों के मार्ग और प्रवाह में हो रहे बदलावों के चलते नदी तटीय इलाकों में रहने वाले लाखों लोग बाढ़, कटाव और आजीविका पर पड़ने वाले असर से जूझ रहे हैं। इस तरह यह प्रभाव गहरे और बड़े पैमाने पर लोगों के सामाजिक व आर्थिक जीवन पर असर डाल रहे हैं। सीधे तौर पर लोगों की रोज़ी-रोटी, स्वास्थ, शिक्षा एवं सामाजिक स्थिरता से जुड़े होने के कारण यह प्रभाव अल्पकालीन नहीं, बल्कि दीर्घकालीन असर छोड़ रहे हैं। इसका असर सामाजिक-आर्थिक अस्थिरता और पलायन के रूप में सामने आ रहा है।
स्प्रिंगर ओपन की एक रिपोर्ट के मुताबिक नदियों के तट में हो रहे कटाव के कारण लोग अपने घर, खेत और काम-धंधे खो रहे हैं। सससे खेती, मछली पकड़ने, नाव चलाने और जलीय कृषि जैसे काम सीधे तौर पर प्रभावित हो रहे हैं। ये स्थितियां बड़ी संख्या में परिवारों को गरीबी की ओर धकेल रही हैं। उदाहरण के लिए, बांग्लादेश के काज़ीपुर में पद्मा नदी के तट के कटाव के चलते बीते पांच वर्षों में लगभग 9% आबादी यहां से पलायन कर चुकी है, क्योंकि यहां रोज़गार के अवसरों में कमी, आर्थिक दुर्दशा और आवासों को ख़तरा जैसी समस्याएं काफ़ी बढ़ गई हैं।
इसी तरह, भारत के पश्चिम बंगाल और असम जैसे क्षेत्रों में नदी कटाव ने हज़ारों लोगों के सामने फसल, घर, पशुधन और स्थायी निवास खोने जैसी चुनौतियांखड़ी की हैं। इससे लोगों में मानसिक तनाव, बच्चों की शिक्षा में बाधा व माताओं एवं बच्चों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर और सामाजिक अस्थिरता जैसे प्रभावों को देखा गया है।
साइंस जर्नल पीएमसी में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक हालात की मार के चलते कई बार परिवारों को बार-बार स्थान बदलना पड़ता है। इससे वह अपने समुदाय से अलग-थलग पड़ जाते हैं, उनका परिवारिक ढांचा टूट जाता है और आपसी सहयोग भी कमज़ोर पड़ जाता है।
इस सबके चलते लोगों में मानसिक तनाव बढ़ता है, जो कई बार अपराध जैसी सामाजिक समस्याओं को भी जन्म देता है। जीवन-यापन के लिए अकसर ये विस्थापित लोग शहरों में झुग्गी-झोपड़ियां बना कर रहने लगते हैं, जिससे ये शिक्षा, स्वच्छता, और सामाजिक प्रतिष्ठा जैसी सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं। दूसरी ओर इस पलायन से शहरी इलाकों में बुनियादी सुविधाओं पर दबाव बढ़ जाता है।