झारखंड के चुम्बरू तामसोय ने अपनी जिद और जुनून से गांव की तस्वीर बदल दी। चम्बरू को 1975 में सूखा पड़ने के कारण पलायन करना पड़ा। वापस लौटने के बाद तालाब खोदना शुरू किया।
झारखंड के पश्चिम सिंहभूम के कुमरिता गांव में रहने वाले चुम्बरू तामसोय ने अकेले दम पर 100 गुणा 100 फीट वाला 20 फीट गहरा तालाब खोद डाला। न कभी सरकारी मदद की चाहत रखी और न किसी और से सहायता मांगी। उनके बनाए तालाब से पूरे गांव के पानी की जरूरतें पूरी होती हैं। 72 साल के चुम्ब तामसोय ने अपनी पूरी उम्र इस तालाब की खुदाई और उसके विस्तार में खपा दी। उम्र के थपेड़ों ने उन्हें शारीरिक तौर पर कमजोर जरूरकर दिया है, लेकिन उन्होंने पानी बचाने और हरियाली फैलाने के अपने जुनून और हौसले में कोई कमी नहीं आने दी।
चुम्बरू तामसोय के जिद- जुनून का यह सफर तकरीबन 45 साल पहले शुरू हुआ। वह 1975 का साल था । इलाके में सूखा पड़ा था। घर में दो वक्त के लिए अनाज तक का संकट था। तभी उत्तर प्रदेश से इस इलाके में आया एक ठेकेदार गांव के कई युवकों को मजदूरी के लिए अपने साथ रायबरेली ले गया। इनमें चुम्बरू तामसोय भी थे। वहां उन्हें नहर के लिए मिट्टी खुदाई के काम में लगाया गया। पूरे दिन काम करने के एवज में ठेकेदार जो मजदूरी देता, वह बहुत कम थी। डांट और प्रताड़ना भी झेलनी पड़ती। यहां काम करते हुए चुम्बरू के दिल में खयाल आया कि अगर घर से सैकड़ों मील दूर रहकर मिट्टी की खुदाई ही करनी है तो क्यों नहीं यह काम अपने गांव में किया जाए। करीब दो-ढाई महीने बाद ही चुम्बरू गांव लौट आए।
गांव वापस लौटने पर चुम्बरू ने अपनी जमीन पर बागवानी शुरू की, लेकिन जब सिंचाई के लिए पानी की जरूरत हुई तो पास स्थित तालाब के मालिक ने साफ मना कर दिया। यह बात चुम्बरू के दिल पर लगी और उसी रोज उन्होंने अकेले तालाब खोदने की जिद ठान ली। खेती-बाड़ी के साथ हर रोज चार-पांच घंटे का वक्त निकालकर तालाब के लिए मिट्टी खुदाई करने लगे। वह बताते हैं कि अगर किसी रोज दिन में समय नहीं मिला तो रात में ढिबरी जलाकर खुदाई किया करते थे। गांव के लोग हंसते। कुछ लोग उन्हें मूर्ख कहा करते थे। इसी बीच चुम्बरू गृहस्थी की डोर से बंधे । शादी हुई और इसके बाद एक संतान हुई। उन्हें आस थी कि कम से कम पत्नी उसके तालाब खोदने के अभियान में साझीदार बनेगी, लेकिन गांव के बाकी लोगों की तरह वह भी इसे चुम्बरू का पागलपन समझती थी। पर इससे बेरपवाह चुम्बरू की आंखों में एक ही सपना था कि एकऐसा तालाब हो, जिससे गांव के हर आदमी को जरूरत भर पानी मिल सके। एक रोज ऐसा भी हुआ कि पत्नी उनके इस पागलपन से खीझकर उन्हें छोड़कर चली गई। उसने किसी और के साथ अपना घर बसा लिया। चुम्बरू आहत हुए, लेकिन उन्होंने तालाब खुदाई की गति और तेज कर दी। आखिरकार कुछ ही सालों में तालाब बनकर तैयार हो गया। उसमें इतना पानी जमा होने लगा कि उनकी बागवानी और खेती की जरूरतें पूरी होने लगीं।
चुम्बरू की अपनी खेती और बागवानी की जरूरतों के लिए छोटा तालाब तो वर्षों पहले बन गया था, लेकिन उन्होंने अपना अभियान किसी रोज थमने नहीं दिया। तालाब का व्यास और उसकी गहराई बढ़ाने के लिए हर रोज इंच-इंच खुदाई जारी रही और कुछ साल पहले इसका आकार सौ गुणा सौ फीट हो गया। अब इसमें सालों भर पानी रहता है। वह इसमें मछली पालन भी करते हैं। चुम्बरू इसी तालाब की बदौलत
लगभग पांच एकड़ भूमि पर खेती करते हैं। उन्होंने पचास-साठ पेड़ों की बागवानी भी विकसित कर रखी है। यहां आम, अर्जुन, नीम और साल के पेड़-पौधे हैं। तालाब के पानी का उपयोग गांव के दूसरे किसान भी खेती से लेकर नहाने धोने के लिए करते हैं। इलाके में पहले वर्ष भर में केवल धान की एक फसल होती थी। अब चुम्बरू के साथ गांव के लोग अपने खेतों में टमाटर, गोभी, हरी मिर्च, धनिया आदि की भी खेती कर रहे हैं।
चुम्बरू की चाहत है कि यह तालाब कम से कम 200 गुणा 200 फीट का हो जाए, ताकि आने वाले दिनों में पूरे गांव में कभी पानी का संकट पैदा न हो। वह आज भी इसके विस्तार के लिए थोड़ी-थोड़ी खुदाई करते हैं। वह बीच में बीमार -1 भी पड़े, लेकिन स्वस्थ होते ही फिर से अपने अभियान में जुट गए। चुम्बरू कहते हैं कि जब तक हाथों में दम है, तब तक उनका यह अभियान नहीं रुकेगा।
हैरत की बात यह है कि सरकार या किसी संस्था ने उनकी अब तक कोई मदद नहीं की। वर्ष 2017 में एक बार रांची में मत्स्य विभाग की ओर से आयोजित कार्यक्रम में उन्हें जरूर सम्मानित किया गया, लेकिन इसके बाद किसी ने उनकी कोई सुध नहीं ली। सुध चुम्बरू को इसका बहुत मलाल भी नहीं है। वह कहते हैं कि ऊपर वाले ने जितनी क्षमता दी, उसके अनुसार उन्होंने अपना काम करने की कोशिश की है।