सिंचाई के साधनों के अभाव के चलते भारत में खेती आज भी मुख्यत: मानसून पर निर्भर है। घटते भूजल स्तर ने किसानों की राह और भी मुश्किल कर दी है। बुंदेलखंड सहित देश के कई इलाकों में किसान पानी की किल्लत के चलते सालभर में केवल एक फसल ले पाते हैं, वह भी बरसात के मौसम में। बारिश अच्छी नहीं हुई, तो कई बार साल में एक फसल लेना भी मुश्किल हो जाता है।
नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश का कुल क्षेत्रफल 240.93 लाख हेक्टेयर है, जिसमें से 187.75 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि है। इसका 77 फीसद हिस्सा यानी 143.89 लाख हेक्टेयर भूमि सिंचित क्षेत्र में आती है। सिंचित क्षेत्र का 68 फीसद हिस्से पर निजी ट्यूबवेल द्वारा सिंचाई होती है, 17 फीसद पर नहरों द्वारा, 12 फीसद पर अन्य स्रोतों द्वारा, जबकि 3 फीसद पर सामुदायिक ट्यूबवेल की मदद से सिंचाई की जाती है। जबकि कुल कृषि क्षेत्र का 23 फीसद इलाका बारिश पर निर्भर है।
केंद्रीय भूमिजल बोर्ड की साल 2020 की रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश में सालाना सुरक्षित रूप से निकासी योग्य भूजल औसतन 66.88 बीसीएम है। इसमें से 41.29 प्रतिशत भूजल खेती में इस्तेमाल होता है, जबकि 4.74 प्रतिशत घरेलू इस्तेमाल के लिए। इन आंकड़ों को देखकर माना जा सकता है कि प्रदेश में भूजल का बेजा इस्तेमाल नहीं हो रहा पर औसत आंकड़े पूरी तस्वीर नहीं दिखाते।
बोर्ड ने 2020 में कुल 836 इलाकों में भूजल की स्थिति का आकलन किया, जिसमें से 544 सुरक्षित, 177 अर्ध-गंभीर रूप से असुरक्षित, 49 गंभीर रूप से असुरक्षित, और 66 अति दोहित पाए गए। स्थिति यह है कि प्रदेश की कुल कृषि भूमि का सिर्फ़ 17 फीसद हिस्सा ही नहरों के सतही जल से सिंचित है। बाकी हिस्सा सिंचाई के लिए भूजल और बरसात पर ही निर्भर है।
इसी तरह, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना की रिपोर्ट के मुताबिक, मध्य प्रदेश का कुल क्षेत्रफल 307.74 लाख हेक्टेयर है, जिसमें से 150.74 लाख हेक्टेयर ज़मीन पर फसल बोई जाती है। हालांकि, सभी तरह के स्रोतों से सिंचित क्षेत्रफल कुल 64.18 लाख ही है, जो कुल कृषि भूमि का मात्र 42.57 प्रतिशत है। बाकी क्षेत्र बारिश के पानी पर निर्भर है।
प्रदेश में औसतन 857.7 मिमी प्रतिवर्ष बारिश होती है। अनुमान के मुताबिक इसका 60 फीसद पानी बेकार बह जाता है। प्रदेश के कुल सिंचित क्षेत्र में नहरों का योगदान 10.51 फीसद है, कुओं और ट्यूबवैल का 42. 56 फीसद, जबकि अन्य स्रोतों का 9.73 है। यह स्पष्ट है कि मध्य प्रदेश का मौजूदा सिंचित क्षेत्र भी अधितकर भूजल पर निर्भर है। इन दोनों प्रदेशों की स्थिति बताती है कि घटता भूजल स्तर और अनिश्चित मानसून किसानों के लिए आजीविका का संकट बन जाता है।
ये दोनों प्रदेश मध्य भारत में आते हैं। मध्य भारत का अधिकतर क्षेत्रफल कठोर चट्टानों वाले जलभृत क्षेत्र में आता है। ऐसे में अगर बारिश के पानी का सही तरीकों से संचय न किया जाए, तो वह बहकर बर्बाद हो जाता है। दोनों ही प्रदेशों में अधिकतर किसान छोटी जोत के किसान हैं, जिनके पास दो हेक्टेयर से कम ज़मीन है। इनके लिए पानी बचाना सिर्फ पर्यावरण संरक्षण नहीं, उत्तरजीविता का विषय है। यहां आप उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुछ ऐसे किसानों की कहानी पढ़ेंगे जो अलग-अलग तरह के निजी प्रयासों से पानी बचाते हुए खेती कर रहे हैं।
सियादुलारी (45) जून की गर्म दुपहरी में तेज़ कदमों से अपने खेत की तरफ बढ़ रही हैं। यहां15 साल पहले उन्होंने खेत की ढलान की तरफ 40-45 फीट गहरा एक रिचार्ज बोर बनाया था। यह कदम उनके जीवन और खेती-बाड़ी में एक बड़ा बदलाव लेकर आया। इसकी बदौलत अब वे सालभर खेती कर पाती हैं। इससे न केवल बरसात का पानी भूमिगत जलस्रोतों में जा रहा है, बल्कि खेत में अलग-अलग फसलें बोकर बेहतर उपज लेना भी संभव हो सका है।
रिचार्ज बोर की तरफ इशारा करते हुए सियादुलारी कहती हैं, "दो-तीन साल पहले नवंबर महीने में अचानक भारी बारिश हो गई। उस समय खेत में हमने टमाटर की फसल लगायी थी। फसल बचाने के लिए हमने खेत के निचले इलाके में बोरवेल खुदवा कर नाली के रस्ते बारिश का पानी उसमें पहुंचा दिया।" वे बताती हैं कि आनन-फानन में उठाए इस कदम ने उन्हें दोहरा फायदा दिया। एक तो उनकी फसल बर्बाद होने से बच गई। दूसरे, गड्ढे ने बोर का काम करते हुए ज़मीन के भीतर पानी को रीचार्ज कर दिया।
सियादुलारी उत्तर प्रदेश के कानपुर जिला मुख्यालय से तकरीबन 60 किलोमीटर दूर पड़राहा गाँव की रहने वाली हैं और उनके पास महज़ दो एकड़ ज़मीन है। पर वे किसान होने के साथ ही एक उद्यमी भी हैं। वे फ़ार्मर प्रोड्यूसर कंपनी एकता महिला समिति की निदेशक हैं। इस कंपनी में कुल 1200 किसान जुड़े हैं, जिसमें 600 महिला किसान हैं। इन सभी किसानों के पास एक हेक्टेयर से कम ज़मीन है।
सियादुलारी बताती हैं, "इस ब्लॉक में श्रमिक भारती संस्था की मदद से 15- 20 साल पहले दर्जनों रिचार्ज बोर बनाये गये थे। जब ये रिचार्ज बोर नहीं बने थे तब गेंहूं की सिंचाई कुओं से होती थी। पर गर्मियों में इन कुओं का पानी लगभग सूख कर इतना नीचे चला जाता था कि दो घंटे की सिंचाई चार घंटे में होती थी। अब ऐसी दिक्कत नहीं है। अब तो किसान रिचार्ज बोर के पानी से आराम से फसल की सिंचाई करते हैं।"
इस रिचार्ज बोर की तकनीक लगभग देसी है। इसमें बरसात का पानी खेत के ही एक हिस्से में सीधे बोरवेल के पाइप से ज़मीन में डाला जाता है। ये बोरवेल आमतौर पर 40-70 फिट गहरा होता है। रिचार्ज बोर में एक जालीदार पाइप नीचे तक लगाया जाता है। इस पाइप में ईटों के छोटे-छोटे टुकड़े (गिट्टी) भी डाली जाती है, ताकि पाइप में कूड़ा न जा पाए और पानी आसानी से बहता रहे। इस तकनीक से पानी धीरे-धीरे मिट्टी की परतों से गुज़रकर नीचे पहुंचता है और भूमिगत जल में मिल जाता है।
हालांकि, आंकड़े बताते हैं कि कानपुर के कई इलाकों में बीते पांच सालों में भूजल स्तर में हर साल औसतन 45 सेमी की गिरावट दर्ज़ हुई है। इस समय यहां का भूजल स्तर 67% है। ऐसे में सियादुलारी जैसे किसानों के प्रयासों ने खेती को नया आयाम देकर इलाके में किसानों की तकदीर भी काफी हद तक बदल डाली है।
इस मॉडल की सफलता के बाद कानपुर में पिछले दो दशकों में दर्जनों रिचार्ज बोरवेल बनाए गए हैं। श्रमिक भारती संस्था के अनुसार, कानपुर के ग्रामीण इलाकों में अब तक 50 से अधिक रिचार्ज बोरवेल खोदे जा चुके हैं। इन कुओं से बारिश का पानी सीधे सतह से भूमिगत जलस्रोतों में ढलान के रास्ते भेजा जाता है, जिससे आसपास के कुओं का जलस्तर बढ़ता है।
पड़राहा से करीब पांच किलोमीटर दूर हमारी मुलाकात बरगदिया पुरवा गाँव के ओमप्रकाश पाल (50) से हुई। पाल बताते हैं, "आप जिस इलाके में हैं, अगर हम लोगों ने ये रिचार्ज बोर नहीं बनाया होता, तो यहां आज हम खेती नहीं कर पाते। पहले ज़मीन के भीतर 20 फुट पर पानी मिल जाता था, अब धीरे-धीरे 50 फीट पहुंच गया है। हमने करीब 20 साल पहले दो रिचार्ज बोर बनाये थे। इनकी वजह से धीरे-धीरे हमारे खेत का तो जल स्तर बढ़ा ही, आस-पास के खेतों को भी फायदा हुआ है।"
वे बताते हैं कि इन दिनों इलाके में जलस्तर इतना कम है कि इंजन वाले बोर भूजल नहीं निकाल पा रहे हैं, सिर्फ़ सबमर्सिबल वाली गहरी बोरिंग ही काम कर रही है। "पर, अब हम लोग खेती के तौर-तरीके बदल कर कम पानी में काम चलाना सीख गए हैं। हमने जैविक खेती भी करना शुरू कर दिया है," वे बताते हैं। उनके पास एक एकड़ से कुछ कम ज़मीन है, पर वे रीचार्ज बोर और जैविक खेती की मदद से पहले से बेहतर फसल ले पा रहे हैं।
जैविक खेती और सिंचाई की नई तकनीकें मददगार
पानी की बढ़ती किल्लत के दौर में जैविक खेती भी एक व्यवहारिक और टिकाऊ समाधान बनकर उभर रही है। खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) के मुताबिक ह्यूमस युक्त मिट्टी स्पंज की तरह पानी को संजो कर रखती है और रासायनिक खाद की अपेक्षा कम पानी खेती संभव हो पाती है।
सियादुलारी सहित कई किसानों ने अब रासायनिक खेती छोड़कर जैविक खेती की ओर रुख किया है। कानपुर के बिल्हौर और शिवराजपुर ब्लॉक के कई किसान बताते हैं कि रासायनिक खेती में जितना पानी में खेत की सिंचाई में लगता था, जैविक खेती में पानी की ज़रूरत तकरीबन आधी हो गई है।
केमिकल वाली खेती में उन्हें चार बार पानी की जरूरत पड़ती थी, पर जैविक खेती दो बार सिंचाई में काम चल जाता है। इसलिए हमारे जैसे किसान जैविक खेती करके पानी की बचत कर रहे हैं। अगर हम सारा पानी इस्तेमाल कर लेंगे तो आगे की पीढ़ियों के लिए क्या बचेगा?ओमप्रकाश पाल, बरगदिया पुरवा, शिवराजपुर ब्लॉक
साल 2016 से प्राकृतिक खेती कर रहीं छब्बा निवादा गांव की गीता ने बताया कि कुछ साल पहले श्रमिक भारती संगठन ने उनको ट्रेनिंग दी थी। ट्रेनिंग में उन्हें यह पहली बार पता चला कि पानी बचाना कितना ज़रूरी है और अगर पानी बचाने की शुरुआत अभी नहीं की गई, तो आगे काफी मुश्किल हो जाएगी। ट्रेनिंग के बाद गीता ने अपने खेतों में रिचार्ज बोर और सोख्ता गड्ढा बनवा लिए थे।
गीता देवी कहती हैं, “रासायनिक खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल से खेतों की मिट्टी ठोस हो जाती थी। पानी ऊपर-ऊपर ही बह जाता था, इसलिए गेहूं की एक फसल में चार से पांच बार सिंचाई करनी पड़ती थी। जब से हमने जैविक खेती करनी शुरू की है, तब से एकाध बार को अगर छोड़ दें, तो पांच पानी वाली फसल तीन पानी में हो जाती है। जैविक खेती से खेत की मिट्टी में ज़्यादा दिनों तक नमी बनी रहती है।"
आज से 20-22 साल पहले कानपुर के एक गाँव में बैठक के दौरान किसानों ने बताया कि मार्च के महीने में सिंचाई करते वक़्त बोरवैल पानी छोड़ने लगते हैं। आस-पास के खेतों में एक समय पर एक ही बोरवैल चलता है और उसे भी एक-डेढ़ घंटे में बंद करके फिर चलाना पड़ता था। पानी का लेवल बहुत नीचे जा रहा था। किसान सबमर्सिबल लगाकर और नीचे से पानी खींचने लगे, लेकिन पानी ज़मीन में वापस जाए इस तरफ किसी का ध्यान नहीं गया और धीरे-धीरे यहाँ का जलस्तर घटने लगा।”राकेश पांडे, मुख्य कार्यकारी अधिकारी, श्रमिक भारती
राकेश बताते हैं कि शुरुआत में संस्था ने काफी किसानों के खेतों में रिचार्ज बोर बनवाये लेकिन वे पर्याप्त नहीं थे। रसायन के इस्तेमाल की वजह से खेत में पानी ज़्यादा लगाना पड़ता था। रिचार्ज बोर से हल नहीं निकला, तो किसानों को जैविक यानी प्राकृतिक खेती करने की दिशा में प्रेरित किया। साल 2015 में कुछ किसानों ने पूरी तरह से रासायनिक खाद और कीटनाशक डालना बंद कर दिया। आज कानपुर नगर और कानपुर देहात मिलाकर कुल 900 किसान पूरी तरह से प्राकृतिक खेती कर रहे हैं।
राकेश कहते हैं, “अब इन किसानों को पानी की समस्या से निजात मिल गयी है पर इनके सामने दूसरी समस्या है। ये ज़मीन का पानी बचा रहे हैं, शुद्ध खाना उगा रहे हैं पर बाज़ार में इनकी फसलों को सही भाव नहीं मिल रहा। इसकी वजह से नई पीढी खेती में नहीं आना चाहती है।”
खेतों में सोख्ता गड्ढों से हो रहा भूजल रीचार्ज
कानपुर से सटे बुंदेलखंड क्षेत्र के 13 ज़िलों में जल संकट काफी गंभीर है। साल 2022 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में पाया गया कि बुंदेलखंड क्षेत्र का केवल 9% हिस्सा ही भूजल के लिहाज़ से ‘अत्यधिक संभाव्य’ जोन में आता है, यानी जहां पानी मिलने की संभावना सबसे ज़्यादा है। लगभग 23% क्षेत्र ‘उच्च संभाव्यता’ वाले हैं, जबकि शेष 35% इलाके ‘कम’ या ‘बहुत कम’ संभाव्यता वाले हैं, जहां भूजल खोजना मुश्किल है। इसका मतलब है कि बुंदेलखंड का बड़ा हिस्सा जल संकट की चपेट में है और यहां जल संरक्षण व वर्षा जल का संचयन बेहद ज़रूरी है।
मध्य प्रदेश के छतरपुर व उसके आस-पास के इलाके को बुंदेलखंड का ग्रेनाइट जोन कहा जाता है। इन चट्टानों में दरारें और सूक्ष्म छिद्र कम होते हैं, जिससे बारिश का पानी ज़मीन के भीतर नहीं समा पाता और भूजल रिचार्ज कम होता है।
इस इलाके में भी जल संरक्षण के लिए कई सकारात्मक पहलें हुई हैं। छतरपुर के डॉ. बालेन्दु शुक्ला बीते 27 सालों से जल संरक्षण पर काम कर रहे हैं। लोग उन्हें ‘पानी वाले बाबा’ कह कर बुलाते हैं। इनके प्रयासों के लिए इन्हें दर्जनों पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है।
वे कहते हैं, "बुन्देलखंड ग्रेनाइट जोन में पानी मुश्किल से मिलता है और तमाम बोरवैल सूख चुके हैं। हमने खेतों में दो फीट ढलान बनाकर डेढ़ फीट गहरा गड्ढा खोदा। इसके बीच 10 फीट गहरा और 10 फीट चौड़ा सोख्ता गड्ढा तैयार किया, ताकि बरसात का पानी पूरी तरह इसमें छन कर चले जाए। बारिश का पानी अब इसी गड्ढे में भर कर धीरे-धीरे जमीन में समा जाता है। इस तकनीक को दूसरे किसान भी सीख कर बरसात के पानी को संरक्षित कर रहे हैं।"
इसकी बदौलत आज वे उस इलाके में मूंग की फसल उगा रहे हैं, जहां मई-जून में खेती करना मुश्किल था।
मेरे गांव में 14 बोरबेल और दो पुरानी बावड़ियां थीं, जो अब सूख चुकी हैं। हमलोग बोरवैल से पानी निकाल तो रहे हैं पर उसे वापस रीचार्ज नहीं कर रहे। ज़मीन का पानी अगर वापस उसे नहीं दिया गया, तो भविष्य में पानी का संकट होना स्वाभाविक है। इसलिए ज़रूरी है कि हम जमीन से जितना पानी लें उतना ही पानी फिल्टर वाले बोरवैल के ज़रिये जमीन को वापस भी किया जाए। यह कोई मुश्किल काम नहीं है। इस फिल्टर को बनाने में 8,000 से 10,000 रुपये का ही खर्च आता है।डॉ. बालेन्दु, जिनके जल संरक्षण के प्रयासों के कारण उन्हें पानी वाले बाबा के नाम से जाना जाता है।
मध्य प्रदेश में वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम के प्रति लोगों को जागरूक करने की इनकी पहल की अब देशभर में तारीफ हो रही है। वे सैकड़ों किसानों को प्रशिक्षित कर चुके हैं। इनके प्रयासों के लिए इन्हें मध्य प्रदेश सरकार ने 2006 में राज्य स्तरीय शंकराचार्य सम्मान देकर सम्मानित किया था। डॉ बालेन्दु कहते हैं, "हमें पानी संरक्षण के लिए सिर्फ सरकार के भरोसे नहीं रहना है। लेकिन, हमें उनकी योजनाओं का इस्तेमाल ज़रूर करना चाहिए। राज्य में खेत-तालाब योजना चल रही है। इसका लाभ किसानो को ज़रूर लेना चाहिए। क्योंकि जल संरक्षण की ज़िम्मेदारी सिर्फ सरकार की नहीं, बल्कि हम सबकी है।"
बीते कुछ सालों में केंद्र और राज्य सरकारों ने खेतों में जल संचयन को बढ़ावा देने की कई योजनाएं शुरू की हैं। मध्य प्रदेश सरकार ने साल 2007 में ‘बलराम ताल’ योजना शुरू की थी। इस योजना में सामान्य वर्ग या बड़ी जोत के किसानों को तालाब बनाने के लिए लागत का 40% (अधिकतम ₹80,000), लघु-सीमांत किसानों को 50% (अधिकतम ₹80,000) और अनुसूचित जाति/जनजाति के किसानों को 75% (अधिकतम ₹1,00,000) तक की सब्सिडी मिलती है।
किसान कृषि, विभाग के ऑनलाइन पोर्टल पर आवेदन करके इस सब्सिडी का लाभ उठा सकते हैं। मध्य प्रदेश सरकार ने इस योजना पर वर्ष 2023-24 में ₹5.6 करोड़ खर्च कर 662 तालाब बनवाए हैं। विभाग ने 2024-25 के लिए 6144 बलराम-ताल बनवाने का लक्ष्य रखा है।
बीते दो दशकों में बुंदेलखंड में चेकडैम, तालाब और जलकूप जैसे कुल 1.16 लाख से अधिक जल संचयन ढांचे बनाए गए हैं। इसपर 15,000 करोड़ रुपये से अधिक की धनराशि खर्च हुई है। क्षेत्र के जल परिदृश्य पर इसका काफी सकारात्मक असर देखने को मिला है। साथ ही सरकार ने देशभर में ग्राउंड वाटर स्टोरेज को बढ़ावा देने के लिए मिशन अमृत सरोवर शुरू किया है। इसके तहत हर ज़िले में 75 तालाब बनाए जाने हैं। सरकार का दावा है कि 2025 तक देश में 68,000 से अधिक तालाब बनाए जा चुके हैं।
ड्रिप और फॉगिंग से हो रही पानी की भरपूर बचत
मध्य प्रदेश के ही सागर ज़िले के तिल्ली गांव के रहने वाले युवा किसान आकाश चौरसिया पानी बचाने के लिए कई प्रयास कर रहे हैं। आकाश ने अपने खेतों में पाइप बिछा रखी है, जिससे ड्रिप इरिगेशन करके वह खेत में ज़रूरत भर पानी ही देते हैं। यह पानी सीधे फसल की जड़ों तक पहुंचता है। इसलिए खेती में पानी की ज़रूरत बहुत कम पड़ती है। साथ ही, वे मल्टी लेयर खेती करते हैं। आकाश का दावा है कि ड्रिप इरिगेशन पद्धति के साथ ही खेत के कुछ हिस्से में वे फ़ॉगिंग करके 90% तक पानी बचाते हैं। सिंचाई के आम तरीकों के मुकाबले वे अपने खेतों में मात्र 10-20% पानी का इस्तेमाल करते हैं।
बारिश में पानी और खेत की मिट्टी बहकर बर्बाद ना हो, इसके लिए उन्होंने खेत में ढलान बनाकर एक गड्ढ़े में इसे जमा करने का उपाय भी किया है। इसके ज़रिये हर साल वो 10-15 लाख लीटर ग्राउंड वाटर रीचार्ज करने का दावा करते हैं। इस तकनीक से न तो उनके खेत का पानी बाहर जाता है और न ही मिट्टी। जो पानी जमा होता है वह काफी फ़ायदेमंद होता है क्योंकि उसमें खेत की मिट्टी के पोषक तत्व घुले हुए होते हैं।
आकाश बताते हैं कि उन्होंने पूरे देश में ऐसे 25,000 गड्ढे बनवाए हैं, जो हर साल करोड़ों लीटर पानी रीचार्ज कर रहे हैं। साथ ही, करोड़ों टन मिट्टी को भी बहने से बचा रहे हैं। वे बताते हैं, "मैं मल्टीलेयर फ़ार्मिंग करता हूं। इससे मैं एक साथ तीन से चार फसलें उगा लेता हूं। एक बार की फॉगिंग सिंचाई में सभी फसलों को एक साथ पानी मिल जाता है। इस तरीके से खेती करने में 70 % पानी की बचत होती है। फसल की लागत कम आती है और मुनाफ़ा कई गुना ज़्यादा होता है, क्योंकि एक साथ खेती करने से सिंचाई, जुताई, निराई-गुड़ाई सभी की लागत में कटौती होती है।”
आकाश ने अपने खेत में एक फ़ार्म हाउस बनाया है। यहां वे महीने की 27-28 तारीख को किसानों के लिए मल्टीलेयर फ़ार्मिंग, जल संरक्षण, जैविक खेती जैसे कई विषयों पर प्रशिक्षण सत्र आयोजित करते हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों से किसान उनसे सीखने आते हैं।
खेत में तालाब बनाकर हो रही 15 एकड़ की सिंचाई
आकाश की तरह ही मध्य प्रदेश के कई ज़िलों में किसान खेत की ढलान पर तालाब खोदकर बरसात का पानी जमा कर रहे हैं। इससे पानी तो खेत में रुकता ही है, मिट्टी की ऊपरी परत भी बची रहती है और कटाव नहीं होता। एमपी के सूखा-ग्रस्त इलाकों में गिने जाने वाले मंदसौर ज़िले के किसान कालूराम पाटीदार (78) ने अपने खेत में 400 फीट लंबा, 300 फीट चौड़ा और 7 फीट गहरा तालाब बनवाया है। साथ ही, एक 50 फीट गहरा कुआं भी खुदवाया है। तालाब और कुएं में बरसात का पानी इकट्ठा होता है, जिससे वे पूरे साल करीब 15 एकड़ खेत की सिंचाई कर लेते हैं।
पानी के अभाव में कालूराम पिछले 25 सालों से पथरीली ज़मीन पर थोड़ी-बहुत खेती ही कर पाते थे। तालाब बनाने के बाद हालात बदलने से उत्साहित कालूराम बताते हैं, "यहां की ज़मीन पथरीली है, जिसके कारण यहां खेती करना हमेशा मुश्किल काम था। सबसे बड़ी समस्या पानी की थी। मैंने सबसे पहले तालाब और कुआं बनाया। पानी की समस्या समाप्त होने में कुछ साल लगे। जब हमने तालाब खोदा था तब सरकार की कोई स्कीम नहीं थी, लेकिन बाद में सरकार की खेत-तालाब स्कीम आई, तो हमने अपने खेत में एक और तालाब बना लिया। अब पथरीली ज़मीन पर खेती करने के बावजूद पूरे साल पानी की कोई दिक्कत नहीं होती। मैं एक साथ तीन से चार फसलें उगा रहा हूँ।"
कालूराम ने अपने खेत पर जैव विविधता का एक अनूठा मॉडल भी तैयार किया है। एक समय इनके खेतों के आसपास छाँव में बैठने के लिए एक भी पेड़ नहीं था। आज हर खाली जगह पर पेड़ लगाकर इन्होंने सैकड़ों की संख्या में हर तरह के पेड़ लगा दिए हैं।
कालूराम का मानना है कि किसान की बाज़ार पर जितनी निर्भरता कम रहेगी, उतना वो सफल रहेगा। इनकी बाज़ार पर निर्भरता न के बराबर है। वे बताते हैं, “हमारे खेतों में जितने भी पेड़ लगे हैं इसमें ज़्यादातर फल वाले पेड़ हैं। हमारे यहां हर तरह के फल आपको मिल, जाएंगे, जो यहां के मौसम में उग सकते हैं।”
इसी ज़िले के किसान नरेंद्र पाटीदार ने अपने खेतों में कुएं बनाये हैं और उन्हें नालियों के ज़रिए खेतों से इस तरह जोड़ा है कि उनमें बरसात का पूरा पानी इकट्ठा हो। इसके अलावा पूरे खेत में इन्होने ड्रिप इरीगेशन लगाया है। इस तरह वे पूरे साल बरसात के पानी से सिंचाई करते हैं।
इन किसानों के उदाहरण बताते हैं कि थोड़ी जागरूकता और मदद किसानों को पानी की कमी से उबरने का रास्ता दिखा सकती है। हालांकि, किसानों के सामने पानी के अलावा बाज़ार तक पहुंच और बिचौलियों जैसी और भी कई समस्याएं हैं, पर वे समझ रहे हैं कि पानी बचाना सिर्फ खेतों की ही नहीं अगली पीढ़ियों की भी ज़रूरत है।