मध्य प्रदेश के प्राचीन जल विज्ञान का विवरण पेश करने वाली इस छोटी-सी किताब में परमार राजा भोज के द्वारा बनवाए गए दो तालाबों का विवरण सम्मिलित है। पहला तालाब (अब अस्तित्व में नहीं) भोजपुर (230 6’ उत्तर एवं 770 38’ पूर्व) में बेतवा नदी पर बनाया गया था। भोजपुर में बनवाया तालाब भीमकुण्ड (भीमकाय कुण्ड या विशाल जलाशय) कहलाता था।
इस किताब में उसे भीमकुण्ड के ही नाम से सम्बोधित किया गया है। भोजपुर ग्राम में भीमकुण्ड के अलावा भगवान शंकर का भव्य किन्तु अधूरा मन्दिर और शिवलिंग (चित्र एक) भी स्थित है। इस भव्य किन्तु अधूरे मन्दिर का शिवलिंग 2.29 मीटर ऊँचा और उसकी व्यास लगभग 5.33 मीटर है। यह शिवलिंग 6.58 मीटर के चौकोर प्लेटफार्म पर स्थित है। इस मन्दिर का प्रशासनिक दायित्व आर्कियालाजीकल सर्वे ऑफ इण्डिया के पास है। यह संरक्षित धरोहर है। भोजपुर ग्राम, मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से लगभग 30 किलोमीटर दूर दक्षिण दिशा में स्थित है।
शिवमन्दिर का निर्माण परमार राजाओं द्वारा कराया गया था। शिव मन्दिर के पास एक जैन मन्दिर भी है। इस मन्दिर में भगवान महावीर की एक और भगवान पारसनाथ की दो मूर्तियाँ स्थापित हैं। शिव मन्दिर की तरह जैन मन्दिर भी अधूरा है। राजा भोज ने दूसरा तालाब कोलांश नदी पर बनवाया था। वह तालाब भोपाल में स्थित है। भोपाल में निर्मित तालाब अभी भी अस्तित्व में है और वह बोलचाल की भाषा में बड़ा तालाब या अपर लेक कहलाता है।
उल्लेखनीय है कि भारत के प्राचीन इतिहास में मालवा के महाप्रतापी परमार राजा भोज (सन् 1011 से सन् 1055) का नाम स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है। उनकी राजधानी धार में स्थित थी। इतिहास में राजा भोज को कुशल प्रशासक, उद्भट विद्वान तथा दक्ष निर्माणकर्ता माना जाता है। राजा भोज ने व्याकरण, अलंकार शास्त्र, काव्य, नाटक, शिल्पशास्त्र (समरांगण सूत्रधार तथा कृत्यकल्प तरु), शैवागम ज्योतिष और वैद्यक-शास्त्र पर ग्रंथ लिखे हैं।
डब्ल्यू. किनकेड मानते हैं कि प्रकृति ने भोजपुर के आसपास के इलाके को तालाब निर्माण के लिये आदर्श स्थितियाँ उपलब्ध कराई हैं। बरसाती पानी को जमा करने के लिये यहाँ पहाड़ियों से घिरी विशाल घाटी और पाल डालने के लिये भोजपुर के निकट दो स्थानों पर अपेक्षाकृत कम ऊँचाई वाला संकरा भूभाग है। पहला संकरा भूभाग लगभग 457.2 मीटर और दूसरा संकरा भूभाग 91.44 मीटर से थोड़ा अधिक लम्बा है।
अनुमान है कि राजा भोज के शिल्पियों ने इस आदर्श साइट को पहचान कर ही भीमकुण्ड का निर्माण किया था। भीमकुण्ड को बनाने में उन दोनों संकरे भूभागों पर मिट्टी की दो पृथक-पृथक पालें डाली गई थीं। उनके दोनों तरफ अन्दर की ओर झुके पत्थरों (बलुआ पत्थर) के तराशे हजारों ब्लाक बिना गारे या सीमेंटिंग मेटेरियल के जमाए गए हैं।
भीमकुण्ड जलाशय की एक किलोमीटर से थोड़ी अधिक लम्बी पाल (चित्र दो) को ग्राम बंगरसिया (भोपाल-चिकलोद मार्ग पर स्थित ग्राम) से मेंडुआ होकर भोजपुर जाने वाली सड़क पर देखा जा सकता है। यह पाल लगभग 12.19 मीटर ऊँची है और इसका ऊपरी भाग लगभग 30.48 मीटर चौड़ा है। यह पाल मौसम के कुप्रभाव से अप्रभावित और अभी भी अच्छी हालत में है।
भोजपुर मन्दिर के पश्चिम में दूसरी संकरी घाटी है। इस घाटी में दूसरी पाल डाली गई थी। यह पाल 26.52 मीटर ऊँची है। उसका आधार 91.44 मीटर से थोड़ा अधिक चौड़ा है। इस छोटी किन्तु ऊँची पाल को माण्डू के बादशाह हुशंगशाह ने सन् 1434 में तुड़वा दिया था। पाल के टूटे हिस्से को भोजपुर मन्दिर के पश्चिम में लगभग 500 मीटर की दूरी पर देखा जा सकता है।
पाल के टूटे हिस्से के पत्थर, नदी पथ में बिखरे पड़े हैं। पाल के टूटे हिस्से (चित्र तीन) को देखने से पता चलता है कि पाल के दोनों तरफ बलुआ पत्थर के तराशे ब्लाक और उसके भीतर मिट्टी भरी है और लगभग 1000 साल से मौसम की मार झेलने के बाद भी पाल और उसमें भरी मिट्टी जस-की-तस है।
किनकेड ने भीमकुण्ड के वेस्टवियर का पता लगाया था। यह वेस्टवियर बाँध की छोटी पाल से लगभग 3.2 किलोमीटर दूर उत्तर पूर्व में स्थित है। किनकेड का मानना है कि वेस्टवियर का चयन बहुत सावधानी से कर उसका निर्माण विन्ध्यन युग के बलुआ-पत्थर (सेंडस्टोन) की ठोस चट्टान को काट कर किया गया था। यह वेस्टवियर एक तिकोनी घाटी के शीर्ष पर स्थित है। इसका एक सिरा बाँध की ओर है। चित्र चार में भीमकुण्ड का वेस्टवियर कलियासोत और बेतवा के संगम के पास कलियासोत का परिवर्तित एवं मूल मार्ग और भोजपुर को दर्शाया गया है।
किनकेड ने भमकुण्ड तालाब की सीमाओं को चिन्हित किया था। यह चिन्हांकन भोपाल-मालवा क्षेत्र के टोपोग्राफीकल सर्वे की टोपोशीट (क्रमांक 16,17 और 26) और भोपाल रेल लाइन की ऊँचाई के कन्टूर के आधार पर किया गया था। इस चिन्हांकन के आधार पर किनकेड प्रमाणित करते हैं कि भीमकुण्ड का क्षेत्रफल लगभग 650 वर्ग किलोमीटर और अधिकतम गहराई 30 मीटर थी। भीमकुण्ड की पाल पर उच्चतम जलस्तर को इंगित करने वाले जलचिन्ह मौजूद हैं। इन जलचिन्हों के अनुसार भीमकुण्ड का अधिकतम जलस्तर पाल की ऊपरी सतह से लगभग 1.83 मीटर नीचे था।
किनकेड ने भीमकुण्ड की पाल और उसके वेस्टवियर की दो विशेषताओं का जिक्र किया है। पहली विशेषता बताती है कि भीमकुण्ड जैसे विशाल तालाब की पाल मिट्टी की बनी थी। दूसरी विशेषता बताती है कि वेस्टवियर की ऊँचाई का निर्धारण एकदम सटीक था। वे लिखते हैं कि ऊँचाई के निर्धारण की छोटी सी चूक भी खतरनाक हो सकती थी और चूक के कारण जलाशय का पानी बाँध के ऊपर से बह कर मिट्टी की पाल को तोड़ सकता था।
ग़ौरतलब है कि भीमकुण्ड की पाल को उसके निर्माण के लगभग 400 सालों के बाद तोड़ा गया था। बरसात प्रेरित एवं बरसात जनित उतार-चढ़ाव झेलने के बाद भी वह टिकी रही। उसका टिके रहना सिद्ध करता है कि वह बहुत मजबूत थी और वेस्टवियर की ऊँचाई का निर्धारण पूरी तरह सही था।
यह हकीकत सिद्ध करती है कि परमारकालीन शिल्पियों की जल विज्ञान और निर्माण कला सम्बन्धी समझ किसी भी मापदंड से उन्नीस नहीं थी। वे तालाब के स्थल चयन, नींव खोदने, पाल बनाने, मौसम से अप्रभावित रहने वाली निर्माण सामग्री चयन में माहिर थे। उनका ज्ञान, पाश्चात्य ज्ञान से बहुत आगे था।
भोपाल रियासत के लुआर्ड द्वारा तैयार गजेटियर में भमकुण्ड के आकार, महत्त्व और विशालता को निम्न दोहे में दर्शाया गया-
ताल तो भोपाल ताल बाकी सब तलैया
रानी तो कमलापति बाकी सब रनैया
गढ़ तो चित्तौड़गढ़ और सब गढ़ैया
राजा तो रामचन्द्र और सब रजैया
यह दोहा आज भी स्थानीय जनमानस की स्मृति में रचा-बसा है और समय-समय पर विभिन्न मंचों पर दुहराया जाता है। इस दोहे में राजा राम, रानी कमलापति, चित्तौड़गढ़ के किले और भोजपुर में राजा भोज द्वारा बनवाए भीमकुण्ड ताल की श्रेष्ठता का बखान किया गया है। दोहे के अनुसार भोजपुर का तालाब अतुलनीय था। वह भारत का सबसे बड़ा मानव निर्मित तालाब था।
अनुमान है कि इस तालाब ने बेतवा के तट पर आबाद भेलसा (वर्तमान विदिशा) पर बाढ़ के खतरों को कम किया होगा। इस अनुमान का आधार, भेलसा (वर्तमान विदिशा) की कम ऊँचाई पर बसी पुरानी बसाहटें हैं जो आधुनिक बसाहटों से हटकर, बाढ़ प्रभावित इलाकों में स्थित हैं।
भीमकुण्ड को सन् 1434 ईसवी में माण्डू के सुल्तान हुशंगशाह ने तुड़वा दिया था। इस घटना का जिक्र समकालीन इतिहासकार साहिब हकीम ने माअसिर-ए-महमूद-शाही में किया है। इस कहानी के अनुसार भेलसा के मुस्लिम बाशिन्दों ने हुशंगशाह से अनुरोध किया था कि उन्हें, उस इलाके और भीमकुण्ड के आसपास रहने वाले लुटेरों से मुक्ति दिलाई जाय ताकि वे शान्ति से रहकर खेती कर सकें।
कहानी में बताया गया था कि लूटपाट के बाद, लुटेरे, भीमकुण्ड में स्थित द्वीप (वर्तमान मंडीद्वीप) में आश्रय लेते हैं। भेलसा के लोगों ने अनुरोध के बावजूद, हुशंगशाह ने तत्काल कोई कार्यवाही नहीं की। वह माण्डू लौट गया। सम्भवतः उसका यह कदम, लुटेरों की ताकत तथा परिस्थितियों के अनुमान पर आधारित हो।
सन् 1434 में हुशंगशाह इस क्षेत्र में पुनः आया। उसने सबसे पहले स्थानीय गोंडों की मदद से भीमकुण्ड की पाल को तुड़वाया, लुटेरों की छापामार ताकत कम की और फिर उनको सजा दी। यह प्रमाण तत्कालीन इतिहास में दर्ज है। दूसरी कहानी (किंवदन्ती) के अनुसार, हुशंगशाह का पुत्र या कोई खास मेहमान, इस विशाल तालाब में डूब गया था इसलिये हुशंगशाह ने तालाब को तुड़वा दिया। यह कहानी स्थानीय स्तर पर कही और सुनी जाने वाली लोकोक्ति भर है।
हुशंगशाह द्वारा भी भीमकुण्ड को तोड़ने के बारे में लुआर्ड ने लिखा है कि सम्भवतः उसने यह तालाब इरादतन या विनाशकारी मानसिक स्थिति में तोड़ा हो पर यह भी सच है कि इस विशाल तालाब के टूटने से जलाशय के डूब क्षेत्र की बेहद उपजाऊ जमीन उसके कब्जे में आई। यह भी कहा जाता है कि गोंडों की फौज को इस तालाब की पाल को तोड़ने में तीन माह का समय लगा।
तीन साल में तालाब खाली हुआ और लगभग 30 साल बाद जलाशय की जमीन खेती लायक बनी। कनिंघम के अनुसार सम्भव है, इस बेहद उपजाऊ जमीन के तालाब के डूब क्षेत्र में आने का हुशंगशाह को दुख रहा हो और उसे पुनः हासिल करने के उद्देश्य से उसने, भीमकुण्ड को तुड़वा दिया हो। खैर, हकीक़त कुछ भी हो, पर सत्य यह है कि भीमकुण्ड को टूटने से हासिल ज़मीन का फायदा हुशंगशाह को नहीं मिला।
भीमकुण्ड को तोड़ने के बारे में पर्शिया के इतिहासकारों ने भी अपना अभिमत प्रकट किया है। उनके अनुसार हुशंशाह को लगा था कि बिना उसे तोड़े लुटेरों का प्रभुत्व कम नहीं किया जा सकता। इसलिये उसने तालाब को तुड़वाया।
खैर, कहानियाँ और कारण कुछ भी हों, पर तालाब टूटने से यदि एक ओर समाज को खेती के लिये बेहद उपजाऊ जमीन मिली तो दूसरी ओर एक विशाल जलाशय इतिहास के पन्नों में हमेशा-हमेशा के लिये खो गया। एक ऐसा जलाशय जो दसवीं सदी के भारत के लोगों के अविश्वसनीय जल विज्ञान, निर्माण कौशल, सृजनशीलता और तालाबों की साइट चयन की विलक्षण समझ का अद्वितीय प्रमाण था, आज केवल एक किंवदन्ती मात्र रह गया है।
भीमकुण्ड को लेकर अनेक किंवदन्तियाँ हैं। इन किंवदन्तियों का कोई लेखक नहीं है। ये किंवदन्तियाँ, भीमकुण्ड की जन्म कुंडली के बारे में सैकड़ों बरसों से जन मानस में संजोई अविस्मरणीय गौरवगाथाएँ हैं। पहली किंवदन्ती का जिक्र डब्ल्यू. किनकेड ने किया है।
इस किंवदन्ती के अनुसार एक बार राजा भोज बहुत बीमार पड़े। उनके दरबारी राजवैद्य उनका इलाज नहीं कर पाये। एक साधू ने उन्हें बताया कि वे अगर भारत का सबसे बड़ा तालाब जिसमें 365 झरनों का पानी मिलता हो, बनवाएँ और उसमें स्नान करें तो रोग मुक्त हो जाएँगे अन्यथा उनकी अकाल मृत्यु सुनिश्चित है।
राजा भोज ने तालाब बनवाने का फैसला किया और अपने विश्वस्त कर्मचारियों और कुशल कारीगरों को विन्ध्याचल पर्वतमाला में सर्वेक्षण के लिये भेजा। उन्हें भोपाल के निकट बेतवा नदी की घाटी मिली जिसमें 365 झरनों का पानी बहता था। नौ झरनों की कमी का हल गोंड सरदार कालिया ने खोजा। उसने जानकारी दी कि बेतवा घाटी के पास में एक लुप्त अनाम नदी है।
इस अनाम नदी को यदि भीमकुण्ड से जोड़ दिया जाये तो 365 झरनों की जादुई संख्या को प्राप्त किया जा सकता है। कालिया सरदार ने यह भी जानकारी दी कि लुप्त नदी को मोड़ा जा सकता है। इस लुप्त नदी को कालिया के नाम पर कलियासोत नदी का नाम दिया। इसके बाद कारीगरों ने भीमकुण्ड का निर्माण किया और राजा रोग मुक्त हुआ।
दूसरी किंवदन्ती, भीमकुण्ड के आसपास के क्षेत्र में कही और सुनी जाती है। लेखक को यह किंवदन्ती, भोजपुर निवासी हरिओम ने सुनाई थी। वे, (हरिओम) तोड़े गए बाँध स्थल के पास झोपड़ी में रहते हैं और चाय की दुकान चलाते हैं। उनके द्वारा सुनाई कहानी के अनुसार राजा भोज पुत्रहीन थे। राजा भोज ने पुत्र प्राप्ति के लिये विद्वानों को आमंत्रित किया और उनसे पुत्र प्राप्ति का मार्ग पूछा।
विद्वानों ने राजा को परामर्श दिया कि वे ऐसे स्थान पर तालाब बनवाएँ जहाँ 9 नदियाँ और 99 नाले मिलते हों। उसी स्थान पर भगवान शंकर का मन्दिर बनवाएँ और तालाब में स्नान कर भगवान शंकर का अभिषेक करें तो महाप्रतापी पुत्र प्राप्त होगा। राजा भोज ने तालाब और मन्दिर बनवाने का संकल्प लिया।
बहुत खोजबीन के बाद भोजपुर ग्राम के निकट उचित स्थान मिला जहाँ 8 नदियाँ मिल रही थीं। यहाँ बाँध बनवाया गया और एक नदी की कमी को पूरा करने के लिये चामुण्डा माता के मन्दिर के पास बह रही नदी को दीवार बनाकर ऊपर उठाया और उसके पानी को भीमकुण्ड की ओर मोड़ा। तालाब और शिव मन्दिर के निर्माण के बाद राजा और रानी ने तालाब में स्नान कर भगवान शंकर का अभिषेक किया और ईश्वर की कृपा से उन्हें पुत्र लाभ हुआ। राजा भोज का यही पुत्र, विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
किनकेड ने भीमकुण्ड की दो जनश्रुतियों की सच्चाइयों को उजागर किया है। पहली सच्चाई यह थी कि भीमकुण्ड का जलाशय बहुत बड़ा था। दूसरी सच्चाई यह थी कि भीमकुण्ड को भरने के लिये बेतवा नदी का कैचमेंट अपर्याप्त था। किनकेड कहते हैं कि स्थानीय टोपोग्राफी के अध्ययन से जाहिर है कि परमारकालीन जल विज्ञानियों को अच्छी तरह मालूम था कि भीमकुण्ड को भरने के लिये बेतवा और उसकी सहायक नदियों का कैचमेंट अपर्याप्त है इसलिये उन्होंने कोलांश नदी के कैचमेंट के पानी को डायवर्ट किया।
उन्होंने, पहले उसे (पानी) भोपाल में बनाए बड़े तालाब में एकत्रित किया और फिर उसकी अतिरिक्त मात्रा के आंशिक भाग को भदभदा के रास्ते डायवर्ट किया। कैचमेंट के पानी को डायवर्ट करने की योजना सफल रही और कोलांश घाटी का आंशिक अतिरिक्त पानी, कलियासोत नदी घाटी के पानी से जुड़कर भीमकुण्ड में पहुँचने लगा।
कहा जाता है कि यह जलापूर्ति बरसात के बाद पूरे तीन माह तक और होती थी। प्रसंगवश उल्लेख है कि किनकेड ने कोलांश के कैचमेंट को 500 वर्ग मील (1295 वर्ग किलोमीटर) माना था। आधुनिक अनुमानों के अनुसार वह लगभग 361 वर्ग किलोमीटर है।
आधुनिक अनुमानों के अनुसार नवाबकालीन बड़े तालाब की क्षमता 38.51 मिलियन क्यूबिक मीटर और कैचमेंट ईल्ड 198.55 मिलियन क्यूबिक मीटर थी। इन आँकड़ों का अर्थ है कि बड़े तालाब में कैचमेंट ईल्ड का अधिकतम 20 प्रतिशत पानी जमा हो रहा था। सन् 1963 में बड़े तालाब की क्षमता वृद्धि की गई जिसके कारण अब उसमें 101.68 मिलियन क्यूबिक मीटर (2.64 गुना अधिक) पानी समाता है।
भीमकुण्ड का ऊपर उल्लेखित विवरण इतिहास, पुरातत्व, इंजीनियरिंग और नदी विज्ञान के शोधकर्ताओं के लिये आकर्षक आमंत्रण है। यह अध्ययन मध्य प्रदेश के प्राचीन जल विज्ञान और पश्चिमी जल विज्ञान के अन्तर को उजागर करता है। इस अध्ययन से अनेक लोगों के मन में पैठी कुछ भ्रान्तियाँ दूर होंगी। मध्य प्रदेश के प्राचीन जल विज्ञान का उजला पक्ष शायद नई इबारत लिखेगा।
परमारों ने भोपाल में केवल एक तालाब बनवाया था। इस तालाब को बड़ा तालाब या अपर लेक के नाम से जाना जाता है। लुआर्ड द्वारा तैयार भोपाल राज्य के गजेटियर (1908) के अनुसार कुछ लोग भोपाल के बड़े तालाब को राजा भोज के मंत्री द्वारा बनवाया हुआ मानते हैं।
प्रसंगवश उल्लेख है कि परमारकालीन बड़े तालाब की पाल मिट्टी (मुरम और बोल्डर) की है। इस पाल के ऊपर बलुआ-पत्थरों के तराशे ब्लाक जमाए गए हैं। मिट्टी की पाल बनाने और उसके दोनों ओर तराशे पत्थरों को जमाने का तरीका भीमकुण्ड की पाल की तर्ज पर है। यह समानता इंगित करती है कि सम्भवतः उनका निर्माण एक ही समय में या एक ही तकनीक के जानकारों द्वारा हुआ होगा।
बड़े तालाब की पाल कमला पार्क पर स्थित है। कमला पार्क के अगल-बगल दोनों तरफ सेंडस्टोन की पहाड़ियाँ हैं। इन पहाड़ियों में हलाली, पातरा और कलियासोत नदियों के जलग्रहण क्षेत्र हैं।
इन पहाड़ियों द्वारा बरसाती पानी का प्राकृतिक तरीके से बँटवारा होता है और वह पानी, उल्लेखित नदियों की घाटियों के मार्फत बह कर बेतवा में मिल जाता है। यह प्राकृतिक व्यवस्था है। सम्भवतः परमारों ने जल विज्ञान आधारित प्राकृतिक व्यवस्था और कैचमेंट के चरित्र को समझ कर ही बड़े तालाब की भूमिका तय की थी।
कुछ लोग बड़े तालाब क निर्माण की कहानी को उस किंवदन्ती से जोड़ते हैं जिसके अनुसार गोंड सरदार कालिया ने भोजपुर स्थित भीमकुण्ड में कम पड़ रहे 9 नालों के जादुई आँकड़े की हासिल करने के लिये एक लुप्त नदी की जानकारी दी थी। कहा जाता है कि बड़े तालाब के निर्माण और उसके पानी को 90 डिग्री से मोड़ने से यह लुप्त नदी जिन्दा हुई और उसका पानी भीमकुण्ड पहुँचा।
उक्त किंवदन्ती, इस लुप्त नदी के नाम और उसके पुराने मार्ग के बारे में मौन है। किंवदन्तियों की सच्चाई जो भी हो पर भीमकुण्ड और बड़े तालाब के निर्माण की कहानी सरल और सहज नहीं है। इस कहानी के कुछ सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक पक्ष भी हैं।
पहला पक्ष पानी के उपयोग और सामाजिक वर्ण व्यवस्था से जुड़ा है। दूसरा पक्ष आस्था से तथा तीसरा पक्ष गरीबी, अमीरी, शिल्पियों एवं मजदूरों तथा पानी पर आश्रित समाज की आजीविका से जुड़ा है। इन प्रश्नों के बारे में जानकारियों का भले ही अभाव हो पर उनके महत्व, प्रभाव और अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता है।
परमारों ने भीमकुण्ड को भरने के लिये बड़े तालाब का निर्माण कराया था इसलिये उससे नहरें नहीं निकालना सहज स्थिति है पर अगला प्रश्न राजा भोज के उस फैसले से सम्बन्धित है जिसके कारण उसने अपनी राजधानी (धार) से सैकड़ों किलोमीटर दूर भोजपुर में भीमकुण्ड जैसे विशाल तालाब का निर्माण करवाया था। उसने भोजपुर के शिव मन्दिर को अधूरा क्यों छोड़ा?
उसके उत्तराधिकारियों ने मन्दिर के निर्माण को आगे क्यों नहीं बढ़ाया? धारानगरी (राजधानी) से सैकड़ों किलोमीटर दूर बनवाए इन विशाल निर्माणों का क्या औचित्य है? इतने विशाल जलाशय का क्या उपयोग है? इन प्रश्नों के बाद कुछ अनुत्तरित तकनीकी सवाल हैं। ये प्रश्न, तत्कालीन जल विज्ञान के सन्दर्भ में बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। ये अनुत्तरित सवाल, इन तालाबों के धरती से सम्बन्ध, नदी-जल विज्ञान, निर्माण कौशल और नदी को डायवर्ट करने जैसे तकनीकी विषयों से जुड़े हैं।
चित्र पाँच में भोपाल के बड़े तालाब में जलमग्न होती बुर्ज वाली परकोटानुमा दीवाल दिखाई देती है। उल्लेखनीय है कि उक्त दीवाल, बड़े तालाब के फतेहगढ़ वाले किनारे से प्रारम्भ होकर, बड़े तालाब के दूसरी ओर स्थित याच क्लब की ओर जाते दिखाई देती है।
बहुत सम्भव है, वह, परमारकालीन प्राचीन परकोटे का हिस्सा हो और उसका निर्माण परमारकालीन भोपाल नगर की सुरक्षा के लिये, बड़े तालाब के निर्माण के पहले, कराया गया हो। इस दीवाल से घिरा क्षेत्र 2.59 वर्ग किलोमीटर से कम है इसलिये लगता है कि दसवीं सदी में जब बड़ा तालाब बना तो इस बुर्ज वाली दीवाल का अधिकांश निचला भाग पानी में डूब गया। इस बिन्दु पर अनुसन्धान करने तथा हकीक़त को सामने लाने की आवश्यकता है।
इस जलमग्न होती सुरक्षा दीवाल (परकोटे) और बुर्ज के पत्थरों को जोड़ने में चूने के गारे का उपयोग किया गया है। उल्लेख है कि परमारकालीन बड़े तालाब के बाँध के ऊपरी 4.5 मीटर वाले हिस्से और आर्क तकनीक से बनी सुरंग में भी पत्थरों को जोड़ने में चूने का उपयोग हुआ है। बहुत सम्भव है कि नगर की सुरक्षा के लिये इस दीवाल का निर्माण परमारों ने कराया हो।
आर्कियालाजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया के पूर्व अधीक्षक डॉ. नारायण व्यास, इस दीवाल की वास्तविक आयु के निर्धारण की वकालत करते हैं। जलमग्न होती दीवाल के निर्माण का औचित्य और अवधि कुछ यक्ष प्रश्न खड़े करती हैं इसलिये लगता है कि इन यक्ष प्रश्नों के उत्तर जानने के लिये नगरनिवेशकों, वैज्ञानिकों, इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं को अनुसन्धान करने की आवश्यकता है।
माना जाता है कि पत्थरों को चूने के गारे की मदद से जोड़ने की तकनीक का विकास दुनिया में सबसे पहले ईरान (पर्शिया) में हुआ था। पर्शियन भाषा में पत्थरों को आपस में जोड़ने वाले पदार्थ को सरोज कहते हैं। सामान्य जुड़ाई के काम में आने वाले सरोज में चूना, राख और पानी मिलाया जाता है। प्लास्टर के काम में आने वाले सरोज में उपर्युक्त पदार्थों के अलावा केटटेल के फूल भी मिलाये जाते हैं।
ईरानी विशेषज्ञों के अनुसार केटटेल के फूल मिलाने से प्लास्टर में दरारें नहीं पड़तीं। प्लास्टर में पड़ी दरारों को बन्द करने के लिये सरोज में अंडे की सफेदी मिलाई जाती है। मध्य ईरान में चार जुदा-जुदा पदार्थों से मिलकर बने सरोज को चारूक कहते हैं। सी.वी. कांड कहते हैं कि परमारकाल में चूने के गारे का उपयोग का प्रारम्भ हो चुका था। उल्लेख है कि बड़े तालाब की परमारकालीन सुरंग के निर्माण में चूने के गारे (लाइम-मार्टर) का उपयोग हुआ है।
आर्कियालाजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया ने बड़े तालाब की पाल का सर्वे कराया है। चित्र छह में परमारकालीन पाल का छोटे तालाब की ओर वाला हिस्सा दर्शाया गया है जिसे देखने से पता चलता है कि पाल पर विभिन्न आकार के पत्थरों के ब्लाक व्यवस्थित तरीके से जमाए गए हैं।
आर्कियालाजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया के अधीक्षक एन. ताहिर के अनुसार गोंडकाल में पाल के ढाल पर लगाए कुछ पत्थरों को सम्भवतः भवन निर्माण की आवश्यकता के कारण हटा कर, किला, बुर्ज और कमलापति महल का निर्माण कराया गया है। इस काम में छोटे पत्थरों और लाखौरी ईटों को प्रयोग में लाया गया है। पाल के ढाल पर स्थित पुराने किले और कमलापति महल का निर्माण गोंड काल अर्थात परमारकाल के बाद किन्तु नवाबों के पहले हुआ है।
डॉ. नारायण व्यास के अनुसार पुराने किले और कमलापति महल के निर्माण की तकनीकें और उपयोग में लाई सामग्री इंगित करती हैं कि उनका निर्माण विभिन्न कालखण्डों में हुआ है। अतः पाल में हुए बदलावों, उनके कारणों और प्रभावों को बेहतर तरीके से जानने के लिये गहन अनुसन्धान करने की आवश्यकता है। इस अनुसन्धान से निर्माण कार्यों के इतिहास और उनकी तकनीकी के देशज तथा पाश्चात्य पक्ष के बारे में सही-सही जानकारी प्राप्त होगी।
आर्कियालाजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया के अनुसार बड़े तालाब की पाल की लम्बाई 367 मीटर और अधिकतम ऊँचाई 16 मीटर है। इसका आधार 165 मीटर चौड़ा और सतह पर पाल की चौड़ाई 125 मीटर है। सी.वी. कांड के अनुसार बाँध की पाल की लम्बाई 400 मीटर, चौड़ाई 125 मीटर और ऊँचाई 18 मीटर है।
पाल की ऊपरी सतह, समुद्र तल से लगभग 518 मीटर ऊपर स्थित है। सिंचाई विभाग के पूर्व चीफ इंजीनियर वी. के. भाटिया के अनुसार पाल की लम्बाई 370 मीटर है। परमारकालीन पाल के वास्तु तथा स्थायित्व से सम्बन्धित विवरण अध्याय पाँच में दिया गया है।
परमारकालीन पाल के पूर्व में छोटा तालाब और पश्चिम में बड़ा तालाब स्थित है। बड़े तालाब की पाल में एक भूमिगत सुरंग है। यह सुरंग बड़े तालाब के अतिरिक्त पानी को पाल के मार्फत बाहर निकालती थी। यह सुरंग लगभग एक मीटर चौड़ी और 2.6 मीटर ऊँची है।
यह सुरंग पनचक्की के पास खुलती है। सी.वी. कांड के अनुसार इस सुरंग का निर्माण परमारकाल में हुआ था। यह बड़े तालाब की पाल का अभिन्न अंग है। कुछ साल पहले इस भूमिगत सुरंग को बन्द कर दिया गया है।
आर्कियालाजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया के अनुसार परमारकालीन परकोटा खानूगाँव से प्रारम्भ होता था। चित्र सात में, भोपाल के नगरीय क्षेत्र में इस सम्भावित परकोटे को गाढ़े रंग की रेखा द्वारा दर्शाया गया है। इस परकोटे की उम्र के बारे में आर्कियालाजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया की रिपोर्ट मौन है।
खानूगाँव में या खानूगाँव से लगे तालाब में परकोटे के अवशेष दृष्टिगोचर नहीं होते। इसी चित्र में बड़े तालाब के अंदरूनी भाग में हलके रंग की रेखा दर्शाई गई है। सम्भवतः यह रेखा बड़े तालाब की परमारकालीन पुरानी सीमा को प्रदर्शित करती है।
लेखक ने तालाब के अंदरूनी भाग में प्रदर्शित रेखा को बड़े तालाब की परमारकालीन सीमा मानकर जलाशय का क्षेत्रफल (डूब क्षेत्र) ज्ञात किया है। यह क्षेत्रफल लगभग 5.83 वर्ग किलोमीटर है। यह क्षेत्रफल किनकेड और लुआर्ड द्वारा वर्णित बड़े तालाब के क्षेत्रफल से मेल खाता है इसलिये माना जा सकता है कि परमारकालीन बड़े तालाब की पश्चिमी सीमा खानूगाँव के पास होगी।
भोपाल स्टेट गजेटियर्स (लुआर्ड, 1908) के पेज 95 पर उल्लेख है कि बड़े तालाब का परमारकालीन क्षेत्रफल 5.83 वर्ग किलोमीटर (2.25 वर्ग मील) और छोटे तालाब का सकल क्षेत्रफल 0.65 वर्ग किलोमीटर (0.25 वर्ग मील) था।
चित्र आठ सी.वी. देशपाण्डे के शोध ग्रन्थ से लिया गया है। इस चित्र में भोपाल नगर की बसाहट के विस्तार को दर्शाया गया है। यह विस्तार सन् 1010 से 1973 के बीच हुआ है। इस विस्तार को पृथक-पृथक कालखण्डों में परमारों, नवाबों, स्वतंत्र भारत की भोपाल स्टेट और मध्य प्रदेश की सरकार ने सँवारा है।
चित्र आठ (1) को देखने से ज्ञात होता है कि सन् 1010 के आसपास भोपाल की आबादी, पुराने भोपाल क्षेत्र में निवास करती थी। यह वह कालखण्ड है जिसमें इस क्षेत्र पर परमार शासकों का आधिपत्य था। इसी कालखण्ड में बड़े तालाब का निर्माण सम्पन्न हुआ था। चित्र आठ (1से 5) में बड़े तालाब की पूर्वी सीमा को अधूरा दर्शाया है। इन चित्रों से उसकी सही आकृति का प्रमाण नहीं मिलता।
बड़े तालाब की सम्पूर्ण आकृति का पहला दस्तावेजी प्रमाण, चित्र 9 मिलता है। यह प्रमाण लुआर्ड द्वारा तैयार, भोपाल स्टेट के गजेटियर्स में उपलब्ध है। सन् 1931 से 1955 के बीच भदभदा के पास लगभग 4 फुट ऊँची दीवाल बनाई गई। इस दीवाल के कारण बड़े तालब के डूब क्षेत्र में इजाफा हुआ और परिधि बदली। परिधि बदलने से उसकी आकृति में बदलाव आया।
इस बदलाव ने सन् 1904 की आकृति को बदल दिया। बड़े तालाब की पाल से सटी आकृति लगभग वही रही पर, डूब क्षेत्र या जल विस्तार दर्शाने वाले कन्टूर ने तालाब की चौड़ाई और आकृति को नियंत्रित किया। बड़े तालाब की क्षमता में सम्भवतः दो बार वृद्धि की गई। इस वृद्धि के परिणामस्वरूप बड़े तालाब की पाल से सटी आकृति तो यथावत रही पर डूब क्षेत्र की सीमाएँ दो बार बदलीं। दोनों बार की सीमाओं का निर्धारण क्षेत्रीय स्थलाकृति ने किया।
कैप्टन सी.ई. लुआर्ड द्वारा सम्पादित भोपाल रियासत के गजेटियर के साथ संलग्न नक्शे में भोपाल नगर को दिखाया गया है। विदित है कि भोपाल को परमारों ने बसाया था। उन्होंने आक्रमणकारियों से इस नगर की सुरक्षा के लिये परकोटे का निर्माण कराया होगा।
परमार काल में भोपाल की बसाहट छोटी रही होगी इसलिये परमारकालीन परकोटा (गाढ़ी रेखा से घिरा छोटा क्षेत्र) छोटा है। भोपाल रियासत के गजेटियर में कहा गया है कि नवाब दोस्त मोहम्मद ने जब भोपाल को अपनी राजधानी बनाया तो उसने फतहगढ़ के किले का निर्माण कराया।
अपनी राजधानी की बसाहट की सुरक्षा के लिये दूसरा परकोटा बनवाया। दूसरा परकोटा (गाढ़ी रेखा से घिरा बड़ा क्षेत्र) बड़ा था। उसके बनने के बाद पहला परकोटा, उसकी जद में आ गया। दोनों परकोटों के भग्नावशेष पुराने भोपाल में आज भी देखे जा सकते हैं।
चित्र नौ में दर्शाया नक्शा भोपाल रियासत के गजेटियर (सी.ई. लुआर्ड, 1908) से लिया गया है। इस नक्शे में भोपाल नगर की सन् 1904 की प्राचीन बसाहट को दर्शाया गया है। इस नक्शे में पुराने भोपाल की महत्त्वपूर्ण बसाहटों के अतिरिक्त, ऊपर उल्लेखित दोनों परकोटों को दिखाया गया है। परमारकालीन बसाहट को शहर-ए-खास या पुराना भोपाल कहा जाता है। इस नक्शे में परमारकालीन बसाहट के अतिरिक्त नवाब कालीन बसाहट भी प्रदर्शित है।
बड़े तालाब की आकृति और उसके डूब क्षेत्र में पहला बदलाव सन् 1930 के आसपास और दूसरा बदलाव नया मध्य प्रदेश बनने के बाद सन् 1963 में आया। गौरतलब है कि चित्र आठ (6, अवधि 1931 से 1955) और चित्र नौ (कालखण्ड 1904) में बड़े तालाब की पूर्वी सीमा के स्वरूप में अन्तर है। लेखक को भोपाल रियासत का नक्शा (चित्र नौ) अधिक प्राामाणिक प्रतीत होता है क्योंकि वह, सम्भवतः वास्तविक सर्वे के आधार पर तैयार किया नक्शा है।
लेखक की मान्यता है कि बड़े तालाब की आकृति और उसके डूब क्षेत्र में पहला बदलाव सन् 1930 के आसपास और दूसरा बदलाव नया मध्य प्रदेश बनने के बाद सन् 1963 में आया। लेखक की मान्यता है कि बड़े तालाब की आकृति से जुड़े अल्पज्ञात तथ्यों को सामने लाये जाने की आवश्यकता है। यह शोध बड़े तालाब की वास्तविक आकृति, प्राचीन जल विज्ञान और नवाबकाल में आये बदलावों की हकीक़त पेश करेगा।
भोपाल दर्पण (रजिया सुल्तान और रफत सुल्तान पेज 45, 1998) में उल्लेख है कि बरसात के दिनों में बड़े तालाब का पानी दक्षिण दिशा से भी निकलता था और बारिश में आबशार (झरने) की शक्ल अख्तियार कर लेता था। इस इलाके को भदभदा कहते हैं। उक्त विवरण से पता चलता है कि पुराने वक्त में बड़े तालाब का पानी रेतघाट और भदभदे से ओवरफ्लो होता था।
बड़े तालाब का नवाबकालीन वेस्टवियर (चित्र दस, निर्माणकाल 1931 से 1955) भदभदा के वर्तमान वेस्टवियर से लगभग 150 मीटर पहले बनाया गया था जिसके कारण बड़े तालाब के जल स्तर में वृद्धि हुई। ऊँचाई बढ़ने के कारण भदभदा वेस्टवियर से पानी की निकासी घटी और कमला पार्क की सुरंग तथा रेतघाट से जल निकासी की मात्रा तथा अवधि बढ़ी। सुरंग से निकलने वाले पानी की ऊर्जा का उपयोग पनचक्की चलाने तथा पुलपुख्ता से निकलने वाले पानी की ऊर्जा का उपयोग हाइड्रालिक पम्प चलाने में किया गया।
भोपाल दर्पण में आगे बताया गया है कि बड़े तालाब की पाल बनने के बाद उसका अतिरिक्त पानी नाले की शक्ल में बहता था। इस नाले को पातरा कहते हैं। नबाबों के वक्त में इस नाले पर एक पनचक्की लगाई गई थी।
भोपाल दर्पण में लिखा है कि शिमला पहाड़ी पर बरसा पानी, विभाजित होकर कलियासोत नदी और बड़े तालाब को मिलता था। इसके अतिरिक्त बड़े तालाब को, फतहगढ़, ईदगाह, लालघाटी, वन-ट्री-हिल पर बरसा और कोलांश नदी का भी पानी मिलता था। विवरण में आगे कहा है कि रेतघाट का रास्ता कच्चा था और रेतघाट का पुश्ता (टीला) और मोरा भी नहीं था।
बरसात के दिनों जब बड़े तालाब में अधिक पानी इकट्ठा हो जाता था तो वह मस्जिद पीर अब्बास की जगह से खंदक के जरिए तलैया, गिन्नौरी, चटाईपुरा से होता हुआ मौजूदा पुख्तापुल की चौकी तक जाता था।
छोटे तालाब के बनने के पहले अर्थात सन् 1794 के पूर्व बाणगंगा नाले और अरेरा की ओर से आने वाला बरसाती पानी, पातरा नाले में मिलकर बूचड़खाने और टेक्सटाइल मिल के पीछे से चल कर आगे बढ़ जाता था। पातरा नदी का उद्गम छोटे तालाब के पुख्ता-पुल से निकलने वाले अतिरिक्त जल से है।
यह नदी इस्लामनगर (जगदीशपुरा) के पास बेतवा में मिलती है। यह ऐतिहासिक गाँव भोपाल से लगभग 11 किलोमीटर दूर स्थित है। यहाँ गोंड राजाओं का पुराना किला और महल मौजूद है। इस किले और महल की सुरक्षा के लिये खाई बनाई गई थी।
इस खाई को पानी की पूर्ति पातरा और हलाली नदियों से होती थी जिसके लिये गोंड राजाओं ने इन दोनों नदियों पर, परस्पर सम्बद्ध तटबन्ध बनाए थे। यह खाई जल विज्ञान की समझ-बूझ और सृजनशीलता का अनुपम उदाहरण है।
आर्कियालाजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया के अनुसार कमला पार्क के एक छोर पर गोंड कालीन महल स्थित है और दूसरे छोर पर किले के अवशेष दिखाई देते हैं। इस महल का प्रवेश द्वार पश्चिम दिशा में है। सामने की ओर मेहरबानों की पंक्तियाँ हैं। इसकी दूसरी मंजिल पर पूर्व में बने एक छज्जे से छोटे तालाब का मनोहारी दृश्य दिखाई देता है।
इस महल को सुन्दर मेहराबों, ताखों और स्तम्भों को पंक्तिबद्ध कर सुसज्जित किया गया है। इस महल के ऊपरी भाग में मेहराबों और कमल की पंखुड़ियों से अलंकृत स्तम्भ हैं। महल के सामने की ओर सुन्दर छज्जे हैं। इस महल का मुख्य भाग कमला पार्क की तरफ और पिछला हिस्सा छोटे तालाब की तरफ है। यह महल स्थापत्यकला का उत्तम उदाहरण है। यह महल सात मंजिला है।
कमला पार्क की तरफ से देखने से इसकी तीन मंजिलें और छोटे तालाब की तरफ से देखने से बाकी मंजिलें दिखाई देती हैं। इस महल की चार मंजिलें अच्छी हालत में हैं। दो मंजिलें छोटे तालाब में डूब गई है। इस महल के निर्माण में लखौरी ईटों, पत्थरों और चूने के गारे का उपयोग हुआ है। कहा जाता है कि चूने के गारे में उड़द की दाल, गुड़, मैथीदाना, बेल और सन् की रस्सी मिलाई गई थी। यह महल 18वीं सदी में गोंड शासकों द्वारा बनवाया गया था।
महल के निर्माण में परमारकालीन तालाब की ढलवां दीवाल (पाल) को नींव के रूप में इस्तेमाल किया गया था। इस महल को कमलापति महल के नाम से जाना जाता है। रानी कमलापति गिन्नौरगढ़ के गोंडवंश की अन्तिम रानी थी। स्थानीय किंवदन्तियों के अनुसार कमलापति के पिता का नाम कृपाराम चन्दन चौधरी था। वे भोपाल के निवासी थे। कमलापति का विवाह गिन्नौरगढ़ के शासक निजामशाह से हुआ था। वह, उनकी सातवीं पत्नी थी और पति की मृत्यु के बाद, उन्होंने इस महल में निवास किया था।
कहा जाता है कि चैनपुर बाड़ी के जागीरदार जसवन्त सिंह के बहकावे में आकर आलमशाह ने निजामशाह को जहर देकर मरवा दिया था। भोपाल की नवाब शाहजहाँ बेगम ने ताजुल इकबाल नामक पुस्तक में लिखा है कि निजामशाह की हत्या के बाद उनकी पत्नी कमलापति और पुत्र नवलशाह गिन्नौरगढ़ में असुरक्षित हो गए थे।
असुरक्षा की भावना से ग्रस्त रानी ने गिन्नौरगढ़ के बदले भोपाल को अपना निवास बनाया। कहा जाता है कि पति की मौत का बदला लेने के लिये बेचैन कमलापति ने इस्लामनगर (जगदीशपुरा) के नवाब सरदार दोस्त मोहम्मद को सहायता के लिये आमंत्रित किया और बदला पूरा होने की स्थिति में एक लाख रुपया देने का वायदा किया।
कमलापति के आमंत्रण पर दोस्त मोहम्मद ने अपनी सेना को संगठित किया और बाड़ी पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। इस एहसान के बदले या एक लाख नहीं चुका पाने के कारण नवाब दोस्त मोहम्मद को गिन्नौरगढ़ का किला और भोपाल पर कब्जा मिला। कमलापति को इतिहास में बड़े सम्मान और आदर से याद किया जाता है। रानी कमलापति को भोपाल के संस्थापक नवाब दोस्त मोहम्मद का समकालीन माना जाता है। गोंडकालीन पुराने किले के भग्नावशेष कमला पार्क से गिन्नौरी जाने वाले मार्ग पर दिखाई देते हैं।
भारत सरकार ने सन् 1989 में कमलापति के महल को संरक्षित धरोहर घोषित किया। सन् 1989 से आर्कियालाजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया द्वारा इसका प्रबन्ध किया जा रहा है। आर्कियालाजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण) के भोपाल मंडल के अधीक्षक एन. ताहेर के अनुसार कमलापति महल और किले (किला कोहना) का निर्माण गोंड राजाओं ने कराया था।
सी.वी. देशपांडे लिखते हैं कि नवाबों के समय से बड़े तालाब से नगर को जल आपूर्ति की जाती थी। सन् 1888 में पुख्तापुल (पुलपुख्ता) के निचले हिस्से में पहला पम्पिंग स्टेशन बनाया गया था। इस पम्पिंग स्टेशन की क्षमता 30,000 गैलन (136.38 क्यूबिक मीटर) प्रति घंटे थी।
इस पम्पिंग स्टेशन से पानी जेल पहाड़ी की टंकी में चढ़ाया जाता था जहाँ से वह पुराने भोपाल शहर को मिलता था। ईदगाह और अहमदाबाद पैलेस (राजमहल) को पानी सप्लाई करने के लिये कर्बला में भाप से चलने वाला पम्पिंग स्टेशन बना था। कर्बला पम्पिंग स्टेशन से पानी ईदगाह स्थित टंकी में पहुँचाया जाता था।
सन् 1924 में भाप से चलने वाली व्यवस्था को खत्म कर बिजली की मोटर लगाई गई। उल्लेखनीय है कि सन् 1945 तक भोपाल को बिना फिल्टर किया पानी सप्लाई किया जाता था। सन् 1945 से सन् 1947 के बीच श्यामला पहाड़ी, ईदगाह पहाड़ी और पुख्तापुल पर फिल्ट्रेशन प्लांट लगाए गए। यह बड़े तालाब के पानी के प्रदूषित होने की कहानी का पहला फायदान था।
सन् 1956 में भोपाल को नए मध्य प्रदेश की राजधानी बनाया गया। राजधानी बनने के बाद भोपाल की आबादी में तेजी से इजाफा होना शुरू हुआ। आबादी की वृद्धि को ध्यान में रख प्रदेश सरकार ने भोपाल के नवाबों के वक्त में बनी 1.22 मीटर ऊँची पत्थर की दीवार से लगभग 150 मीटर नीचे प्रवाह की दिशा में वर्तमान भदभदा वेस्टवियर (चित्र ग्यारह) का निर्माण कराया।
अतिरिक्त पानी की निकासी के लिये 11 गेट लगाये। वेस्टवियर निर्माण का काम सन् 1963 के आसपास पूरा हुआ। वेस्टवियर बनने से बड़े तालाब की नवाबकालीन कुल जल भण्डारण क्षमता 38.51 मिलियन क्यूबिक मीटर से बढ़कर 101.68 मिलियन क्यूबिक मीटर हो गई। वर्तमान क्षमता, नवाबकालीन क्षमता से 2.64 गुना अधिक है। इस कदम से जल संग्रह तो बढ़ा पर भारतीय जल विज्ञान के सिद्धान्तों के आधार पर बनाई जल संरचना का मूल चरित्र अभिशप्त हो गया।
बड़े तालाब की क्षमता वृद्धि की योजना बनाते समय सेन्ट्रल वाटर एंड पावर कमीशन ने गाद जमाव का अनुमान लगाया था। इस अनुमान के अनुसार बड़े तालाब में आने वाली गाद की सम्भावित मात्रा एक वर्ग किलोमीटर कैचमेंट पर प्रतिवर्ष 0.0362 हेक्टेयर मीटर मानी थी। प्रारम्भिक 23 सालों अर्थात सन् 1979-80 तक बड़े तालाब में 5.67 मिलियन क्यूबिक मीटर गाद जमा हो चुकी है।
यह जमाव, सेन्ट्रल वाटर एंड पावर कमीशन अनुमानों से अधिक और तालाब की अधिकतम गाद जमाव (14.17 मिलियन क्यूबिक मीटर) सीमा का लगभग 40 प्रतिशत है। लगता है भारतीय जल विज्ञान की अनदेखी के कारण हजार साल पुराने तालाब को गाद जमाव की लाइलाज बीमारी हो गई है। यह बीमारी चिन्ताजनक है। इस बीमारी के कारण जल संचय घट है। जल संचय घटने के कारण बड़े तालाब द्वारा जिम्मेदारियों का पूरा करना कठिन होते जा रहा है।
मध्य प्रदेश सरकार ने बड़े तालाब की पाल को मज़बूती प्रदान करने और पम्प हाउस को बाढ़ से बचाने के लिये कमला पार्क स्थित पम्प हाउसों की तरफ के हिस्से में 512.20 मीटर की ऊँचाई तक पक्की दीवाल का निर्माण कराया है और अन्य सावधानियाँ सुनिश्चित की हैं।
कैप्टन लुआर्ड के अनुसार परमारकालीन तालाब का डूब क्षेत्र लगभग 6.5 वर्ग किलोमीटर था। यह क्षेत्र उसके कैचमेंट का लगभग 1.8 प्रतिशत था। भदभदा के वर्तमान वेस्टवियर के पूरा होने के परिणामस्वरूप परमारकालीन बड़े तालाब का डूब क्षेत्र बढ़कर लगभग 31.0 वर्ग किलोमीटर अर्थात लगभग 4.8 गुना हो गया है।
यह क्षेत्र उसके कैचमेंट का लगभग 11.65 प्रतिशत है। लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के सेवानिवृत्त इंजीनियर-इन चीफ डी.के. मित्रा बताते हैं कि भदभदा वेस्टवियर के निर्माण के बाद बड़े तालाब का पुनर्जन्म हुआ है। उसकी जिम्मेदारी बढ़ी है। यह जिम्मेदारी भोपाल नगर की बढ़ती आबादी को पेय जल उपलब्ध कराने की है।
भोपाल नगर निगम के पूर्व प्रशासक एम.एन. बुच के अनुसार सन् 1973 की अप्रत्याशित बाढ़ के दौरान बड़े तालाब का जलस्तर बहुत अधिक बढ़ गया था। भदभदा के वेस्टवियर से प्रावधानित जल निकासी के बावजूद रेतघाट स्थित सड़क के बह जाने और भोपाल के निचले इलाकों के डूबने का खतरा उत्पन्न हो गया था। भविष्य में यह स्थिति उत्पन्न नहीं हो इसलिये रेतघाट स्थित सड़क की ऊँचाई बढ़ाई गई। इस व्यवस्था के बाद बाढ़ सम्भावित निचला इलाका सुरक्षित हो गया है।
बड़े तालाब की पाल में एक सुरंग है। सिंचाई विभाग के चीफ इंजीनियर वी.के. भाटिया, जिन्होंने इस सुरंग का सुदृढ़ीकरण कराया है, के अनुसार सुरंग का मुहाना, समुद्र की सतह से लगभग 1648 फीट की ऊँचाई पर है। उसके निर्माण में प्रयुक्त पत्थरों को जोड़ने में लाइम-मार्टर का उपयोग किया गया है और उसकी आकृति मेहराब वाली है। वह सम्भवतः बड़े तालाब से बाढ़ के अतिरिक्त पानी की निकासी के लिये बनाई गई थी।
केन्द्रीय जल और विद्युत आयोग की सन् 1960 की रिपोर्ट के अनुसार बड़े तालाब की सुरंग में जल रिसाव की मात्रा बड़े तालाब की सकल जल क्षमता का लगभग 1.76 प्रतिशत थी। बड़े तालाब की क्षमता वृद्धि के बाद रिसाव लगातार बढ़ रहा था। वी.के. भाटिया बताते हैं कि सन् 2002-03 में सुरंग में जल रिसाव की मात्रा लगभग 300 क्यूसेक हो गई थी।
एम.एन. बुच और सड़क विशेषज्ञ सी.वी. कांड के अनुसार कमला पार्क स्थित बाँध की पाल पर भारी यातायात का दबाव है। यातायात दबाव और सुरंग में होने वाले रिसाव को ध्यान में रखकर मध्य प्रदेश सरकार ने सुरंग को मजबूती प्रदान करने के लिये ग्राउटिंग कराई है।
सुरंग के मुहाने पर गेट लगाकर जल प्रवाह को नियत्रित किया है। वी.के. भाटिया के अनुसार, ग्राउटिंग के बाद रिसाव की मात्रा बहुत कम (0.2 क्यूसेक) रह गई है। एम.एन. बुच और सी.वी. कांड का मानना है कि आधुनिक वाहनों की वजन ढोने की बढ़ती क्षमता और उनकी संख्या में हो रही सतत् वृद्धि के कारण कमला पार्क की पाल पर दबाव बढ़ रहा है।
बड़े तालाब से लगा एक और तालाब है। इस तालाब को छोटा तालाब कहते हैं। चित्र आठ में छोटे तालाब की सन् 1904 की स्थिति को दिखाया गया है। इस तालाब का निर्माण भोपाल नबाव के मंत्री छोटे खान ने सन् 1794 के आसपास कराया था। इस तालाब की पाल बड़े तालाब से निकलने वाले जल मार्ग के लम्बवत थी।
लुआर्ड के अनुसार छोटे तालाब का डूब क्षेत्र 0.65 वर्ग किलोमीटर था। इस पाल के बनने से पुराने भोपाल और जहाँगीराबाद के बीच यातायात सुगम हुआ। इस तालाब की पाल की लम्बाई 280 मीटर और चौड़ाई 21.03 मीटर थी। इस तालाब की पाल मजबूत लाल पत्थरों की बनी थी इसलिये स्थानीय लोग इसे पुख्ता-पुल (पुलपुख्ता) कहते हैं।
इस तालाब में पानी की पूर्ति उसके जलग्रहण क्षेत्र और बड़े तालाब की सुरंग से निकले अतिरिक्त पानी से होती है। सन् 1973 में आई बाढ़ के समय छोटे तालाब की पाल के टूटने का खतरा उत्पन्न हो गया था। उसे सुरक्षित करने की दृष्टि से उसकी चौड़ाई और ऊँचाई में वृद्धि की गई।
इस वृद्धि के कारण डूब क्षेत्र 4098 वर्ग किलोमीटर, अधिकतम गहराई 9.4 मीटर और स्टोरेज कैपेसिटी लगभग 8.00 लाख क्यूबिक मीटर हो गई है। इस तालाब के चारों ओर बसाहट है। बसाहट के अपशिष्टों के छोटे तालाब में मिलने के कारण उसका पानी प्रदूषित हो रहा है।
परमार राजाओं ने अपने राज्य में अनेक तालाबों का निर्माण कराया होगा। वे तालाब उनकी राजधानी धार सहित पूरे राज्य में बने होंगे। इस किताब में उन सबके विवरण के स्थान पर केवल भोजपुर के विलुप्त भीमकुण्ड और भोपाल के बड़े तालाब के कुछ तकनीकी पक्षों पर चर्चा की गई है। इस चर्चा में बेतवा और उसकी प्रमुख सहायक नदियों (कलियासोत एवं कोलांश) से जुड़ी कुछ सम्भावित हकीकतों पर भी रोशनी डाली गई है।
भीमकुण्ड के कुछ अनछुए तकनीकी पक्षों की कहानी प्रस्तुत है। इस कहानी में भीमकुण्ड को मिलने वाले बरसाती पानी की सम्भावित मात्रा, उसकी अपर्याप्तता, जलाशय की सम्भावित आकृति एवं गाद जमाव की परिस्थितियों इत्यादि को समेटा गया है। भीमकुण्ड की कहानी का दूसरा भाग कलियासोत और कोलांश नदियों के जीवन में आये उतार-चढ़ाव से जुड़ा है।
भीमकुण्ड की कहानी, भोपाल के बड़े तालाब, बेतवा, कोलांश, पातरा और कलियासोत नदियों से अन्तरंग ढंग से जुड़ी है इसलिये उसका पृथक-पृथक बखान सम्भव नहीं है। इस बात को ध्यान में रखकर अगले पन्नों में सबसे पहले इन दोनों तालाबों से जुड़ी कुछ मूलभूत बातों का जिक्र किया है। उसके बाद कोलांश और कलियासोत के बारे में कुछ बुनियादी बातें कही गई हैं।
यह विवरण, भीमकुण्ड और बड़े तालाब के साथ-साथ इस सम्पूर्ण क्षेत्र के भूआकृतिक पक्ष और कोलांश, पातरा और कलियासोत की नदी घाटियों के मौजूदा सह-सम्बन्धों को स्पष्ट करने के लिये उपयोगी है। इस क्षेत्र के उपर्युक्त नदी-तंत्रों की असली कहानी गुमनामी झेल रही है।
उस पर बीते समय की धुन्ध का गहरा साया है। यह किताब उस धुन्ध को साफ करने का प्रयास करती है। पर इस प्रयास को अधिक-से-अधिक उस धुन्ध को साफ करने की कहानी की प्रस्तावना मात्र ही कहा जा सकता है। नदी विज्ञानियों के अनुसन्धान के लिये यह आकर्षक क्षेत्र है।
भीमकुण्ड के बाँध की साइट के चयन और उसकी पाल के बारे में पूर्व में विवरण दिया जा चुका है इसलिये केवल इतना उल्लेख पर्याप्त है कि उसका निर्माण आधुनिक युग के तकनीकी एवं वित्तीय मानदंडों की दृष्टि से भी सही है। भीमकुण्ड, मध्य प्रदेश के पुरातन जल विज्ञान का अविश्वसनीय उदाहरण है।
भीमकुण्ड की पाल के बारे में भी पहले विवरण दिया जा चुका है। यह सही है कि आधुनिक काल में भी मिट्टी के बाँध बनाए जाते हैं पर उनकी साइज बहुत छोटी होती है। दूसरे, मौसम और पानी के कुप्रभाव से पाल की सुरक्षा के लिये पिचिंग की जाती है।
पिचिंग के अन्तर्गत उपयुक्त आकार के पत्थरों को व्यवस्थित तरीके से जमाकर सीमेंट से जोड़ा जाता है। पिचिंग के कारण सभी पत्थर अपने स्थान पर मजबूती से जमे रहते हैं, पानी पाल के अन्दर प्रवेश नहीं करता और बाँध की मिट्टी सुरक्षित रहती है।
भीमकुण्ड की पाल की पिचिंग पत्थरों से की गई है पर उन्हें जोड़ने में चूने के गारे या सीमेंट का उपयोग नहीं हुआ है। वे बिना सीमेंटिंग मेटेरियल के जमाए गए हैं। भीमकुण्ड की मिट्टी की पाल का भारत के सबसे विशाल मानव निर्मित तालाब के जल की अठखेलियाँ लेती जल तरंगों के वेग को लगभग 400 साल तक सहना, कटाव मुक्त रहना और टिके रहना किसी जादू या चमत्कार से कम नहीं है। यह चमत्कार भारतीय जल विज्ञान का उदाहरण है। यह उदाहरण आधुनिक तकनीकी लोगों को आश्चर्यचकित करता है।
किनकेड ने भीमकुण्ड की अधिकतम गहराई 30 मीटर मानी है। किनकेड एवं कैप्टन लुआर्ड ने भीमकुण्ड की औसत गहराई का जिक्र नहीं किया है। लेखक के अध्ययन के अनुसार भीमकुण्ड जलाशय की अधकतम गहराई 40 मीटर और औसत गहराई 20 मीटर के आसपास है। भीमकुण्ड की अधिकतम गहराई और उसकी औसत गहराई सम्बन्धी अनुमानों के बारे में आगे विवरण दिया गया है।
भीमकुण्ड का कैचमेंट विन्ध्याचल पर्वतमाला के पहाड़ी क्षेत्रों में स्थित है। निर्माण के समय उसके जलाशय को बेतवा और कलियासोत नदी-तंत्रों से पानी मिलता था। लेखक द्वारा की गई गणना के अनुसार कैचमेंट का क्षेत्रफल लगभग 108260 हेक्टेयर है।
बाद में जब कोलांश नदी को भदभदा के रास्ते डायवर्ट किया तो उसमें कोलांश नदी का भदभदा तक के कैचमेंट का भूभाग (39658 हेक्टेयर) जुड़ गया। लेखक ने भीमकुण्ड के संयुक्त कैचमेंट (बेतवा, कलियासोत, कोलांश नदी-तंत्र और भीमकुण्ड में मौजूद टापुओं का क्षेत्र) की गणना की है। इस गणना के अनुसार भीमकुण्ड के संयुक्त कैचमेंट का क्षेत्रफल लगभग 147938.35 हेक्टेयर है।
भीमकुण्ड के कैचमेंट का सकल क्षेत्रफल 147938.35 हेक्टेयर और उसके जलाशय का डूब क्षेत्र लगभग 40020 हेक्टेयर है। कैचमेंट की तुलना में जलाशय का डूब क्षेत्र लगभग 27 प्रतिशत है। उल्लेखनीय है कि परमारकालीन बड़े तालाब का प्रारम्भिक डूब क्षेत्र उसके कैचमेंट का केवल 1.8 प्रतिशत था।
कैचमेंट और जलाशय के डूब क्षेत्र का अन्तर्सम्बन्ध गाद जमाव से जुड़ा है। यह संकेत भारतीय जल विज्ञान आधारित जलाशयों और पाश्चात्य जल विज्ञान आधारित जलाशयों के अन्तर को रेखांकित करता है। यह अन्तर्सम्बन्ध लगभग सभी जलाशयों में देखा गया है। इसलिये यह संयोग नहीं है।
परमारकाल में भीमकुण्ड के कैचमेंट में सागौन के वृक्षों के अलावा विभिन्न प्रजातियों के वृक्ष, झाड़ियाँ, लाताएँ और वृक्षों पर पलने एवं पनपने वाले विविध किस्मों के छुद्र पादपों के अतिरिक्त जीव-जन्तुओं, कीट-पतंगों, पक्षियों, जीवाणुओं और विभिन्न प्रकार के अवस्थाओं में मिलने वाली काली और लाल मिट्टियाँ एवं उप-मिट्टियाँ मिलती होंगी।
लगभग 1000 साल पहले इस क्षेत्र में मौजूद जंगल, जैव-विविधता से परिपूर्ण एवं अत्यन्त घने रहे होंगे। उन जंगलों में वृक्षों के नीचे दिन में भी अन्धेरा पसरा रहता होगा। मानवीय गतिविधियों के लगभग अनुपस्थित होने के कारण वे जंगल विख्यात कवि भवानी प्रसाद मिश्र के शब्दों में ऊँघते जंगल रहे होंगे।
लेखक ने भीमकुण्ड के संयुक्त कैचमेंट में मौजूद तत्कालीन घने जंगलों, कैचमेंट के ढाल, जलाशय नियंत्रित मौसम, वाष्पीकरण और प्राकृतिक परिस्थितियों को ध्यान में रख गणनाएँ की हैं। लेखक ने स्थानीय सालाना औसत बरसात को लगभग 1100 मिलीमीटर कैचमेंट को 147938.35 हेक्टेयर और रन-ऑफ-कोएफिसिएन्ट को 0.5 माना है। इस आधार पर उसके कैचमेंट से हर साल जलाशय को मिलने वाले पानी की मात्रा लगभग 81366 हेक्टेयर मीटर हो सकती है।
लेखक द्वारा की गई गणना के अनुसार भीमकुण्ड का डूब क्षेत्र लगभग 40020 हेक्टेयर है। इस इलाके की औसत बरसात को 1100 मिलीमीटर मानने से अनुमान है कि भीमकुण्ड के जलाशय पर हर साल लगभग 44022 हेक्टेयर मीटर पानी बरसता होगा इस प्रकार भीमकुण्ड जलाशय को हर साल लगभग 125388 हेक्टेयर मीटर जल की प्राप्ति होती थी।
भीमकुण्ड के जलाशय की तली में बेसाल्ट और सेंडस्टोन मिलता है। स्वाभाविक है जलाशय की तली से जल रिसाव होता होगा। इस रिसाव की गणना के लिये आँकड़े अनुपलब्ध हैं इसलिये लेखक ने भारत सरकार द्वारा सुझाए मानकों के आधार पर जलाशय की तली से होने वाले सम्भावित सालाना जल रिसाव की गणना की है।
यह रिसाव सम्भवतः लगभग 57.6 हेक्टेयर मीटर होगा। अतः उपर्युक्त सालाना जल रिसाव हानि को घटाने के उपरान्त भीमकुण्ड के जलाशय का शुद्ध योगदान लगभग 43964 हेक्टेयर मीटर रहा होगा। सम्भवतः यही भीमकुण्ड जलाशय का सालाना योगदान है।
भीमकुण्ड जलाशय की पानी सहेजने की अधिकतम जल संचय क्षमता ज्ञात करने के लिये उसका आयतन जानना जरूरी है। आयतन जानने के लिये लेखक ने उसका डूब क्षेत्र, किनारों का ढाल, तली का स्वरूप और औसत गहराई की जानकारी का अनुमान लगाया है।
लेखक के अनुसार भीमकुण्ड का डूब क्षेत्र लगभग 40020 हेक्टेयर है। जलाशय की तली के स्वरूप और किनारों के ढाल की जानकारी के लिये ड्रिलिंग आँकड़ों की मदद ली गई है। इस कड़ी में लेखक ने सबसे पहले तली के स्वरूप का अनुमान लगाया। ढाल की समझ बनाई और फिर उसकी सम्भावित स्टोरेज क्षमता की गणना की।
भीमकुण्ड के डूब क्षेत्र में नलकूपों की खुदाई में मिली चट्टानों से पता चलता है कि भीमकुण्ड के अस्तित्व में आने के पहले, यहाँ बेतवा नदी तंत्र की नदियों की घाटियाँ अस्तित्व में थीं। उन नदियों का उद्गम चारों दिशाओं में मौजूद विन्ध्याचल की पहाड़ियों से था। वे सभी बेतवा की सहायक नदियाँ थीं।
बेतवा नदी अपने उद्गम (झिरी ग्राम के निकट) से निकल कर भोजपुर की ओर बहती थी। बेतवा तंत्र की सभी नदियों ने अपनी-अपनी घाटियों को अंगरेजी के वी अक्षर से मिलती-जुलती आकृति वाली घाटियों में तराशा था। क्षेत्रीय ढाल ने नदियों के मार्ग तय किये थे।
जब भीमकुण्ड बना, तब उसकी गहराई को वेस्टवियर की ऊँचाई एवं नदी घाटियों की गहराइयों ने निर्धारित किया। इसी कारण भोजपुर के निकट सर्वाधिक गहराई पाई जाती है। इस किताब में जलाशय की गहराई का अनुमान लगाने के लिये नलकूपों में मिली गाद की परत की मोटाई और वेस्टवियर की ऊँचाई के आँकड़ों का उपयोग किया गया है।
लेखक ने भीमकुण्ड जलाशय के ढाल और उसकी तली के चरित्र को समझने के लिये जलाशय क्षेत्र में खोदे नलकूपों के स्ट्राटा-चार्टों का अध्ययन कर गाद के नीचे मौजूद चट्टानों (तली) की गहराई जानने का प्रयास किया है। इस अध्ययन से पता चलता है कि भीमकुण्ड जलाशय मुख्यतः खड़े ढाल एवं ऊँची-नीची तली वाला जलाशय था। उसका ढाल भोजपुर की तरफ था।
निर्माण के समय जलाशय की औसत गहराई लगभग 20 मीटर और अनुमानित क्षेत्रफल (डूब क्षेत्र) लगभग 40020 हेक्टेयेर था। जलाशय के ढाल और तली की असमताओं को ध्यान में रख भीमकुण्ड की स्टोरेज क्षमता का मान सकल आयतन का 70 प्रतिशत आँका है।
इस आधार पर भीमकुण्ड की सम्भावित जल भण्डारण क्षमता लगभग 560280 हेक्टेयर मीटर है। लेखक का मानना है कि जलाशय की तली की गहराई का सही-सही अनुमान लगाने के लिये जलाशय क्षेत्र का सघन भू-भौतिकी सर्वे किया जाना चाहिए।
भीमकुण्ड की प्रारम्भिक स्टोरेज क्षमता लगभग 5,60,280 हेक्टेयर मीटर और सालाना कैचमेंट ईल्ड (जलापूर्ति) लगभग 1,25,388 हेक्टेयर मीटर थी। इन आँकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि भीमकुण्ड को भरने के लिये उसका कैचमेंट अपर्याप्त था। कैचमेंट ईल्ड की तुलना में जलाशय की स्टोरेज क्षमता लगभग 4.5 गुना अधिक थी।
उल्लेखनीय है कि किनकेड ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि भीमकुण्ड का कैचमेंट अपर्याप्त था। लेखक किनकेड की कैचमेंट अपर्याप्तता की मान्यता से एक कदम आगे जाकर रेखांकित करता है कि बेतवा, कलियासोत और कोलांश का संयुक्त कैचमेंट भीमकुण्ड को भरने के लिये अपर्याप्त था।
अनुमान है कि भीमकुण्ड को पहली बार पूरा भरने में लगभग पाँच साल लगे होंगे। पाँच साल बाद ही उसके वेस्टवियर से पानी बाहर निकला होगा। इस अनुमान में वाष्पीकरण हानि की अनदेखी की गई है। वेस्टवियर से होने वाली जल निकासी की मात्रा का गणित थोड़ा जटिल है, पर अनुामन है कि वह कैचमेंट से आने वाले पानी द्वारा जलाशय को अधिकतम स्तर तक भरने के बाद बचे पानी के समानुपाती होगा।
भीमकुण्ड के कैचमेंट से आने वाले पानी की मात्रा की कमी तकनीकी रूप से भले ही प्रासंगिक हो पर वह भीमकुण्ड के स्थायित्व वेस्टवियर की ऊँचाई के निर्धारण और दोनों पालों के स्थल चयन से जुड़ी परमारकालीन विलक्षण समझ एवं भारतीय जल विज्ञान की विशेषज्ञता को चुनौती नहीं देती।
भीमकुण्ड में जमा गाद का स्रोत बेतवा और उसकी सहायक नदियों का कैचमेंट है। लेखक ने जलाशय में जमा गाद की जानकारी एकत्रित की है। इस जानकारी को प्राप्त करने में नलकूपों के स्ट्राटe-चार्टो का उपयोग किया गया है। स्ट्राटा-चार्टों के अवलोकन से पता चलाता है कि गाद के साथ कहीं-कहीं रेत और बजरी भी मिलती है।
गाद की परत की मोटाई अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग है। यह मोटाई सात मीटर से लेकर 28.06 मीटर तक है। अधिकांश स्थानों पर उसकी मोटाई बीस मीटर के आसपास है। लेखक को यह जानकारी मध्य प्रदेश के जल संसाधन विभाग की नलकूप शाखा के इंजीनियर डी.पी. यादव ने उपलब्ध कराई है।
यह जानकारी जलाशय क्षेत्र के अन्दर स्थित बरखेड़ा, नूरगंज, इकलामा, अमोदा, उमरिया, आमछा खुर्द, भियापुर, खिल्लीखेड़ा, केसरवाड़ा, देवरिया, बीलखेड़ी, सिमरई, इटायाकला, सतलापुर, प्रेमतला, गेहूँखेड़ा, टीलाखेड़ा और भूतपलासी ग्रामों में खोदे नलकूपों पर आधारित है। ये ग्राम अब्दुल्लागंज एवं मंडीद्वीप के आसपास और राष्ट्रीय राजमार्ग के समीप स्थित हैं।
भीमकुण्ड बनने के पहले इस क्षेत्र की नदियों में प्रवाहित गाद का गन्तव्य (अन्तिम ठिकाना) बंगाल की खाड़ी था। भीमकुण्ड बनने के बाद परिस्थितियों में बदलाव आया और कैचमेंट से आने वाली गाद भीमकुण्ड जलाशय में जमा होने लगी। तकनीकी लोग बताते हैं कि किसी भी जलाशय में गाद के जमाव की दर को जानने के लिये अनेक प्राकृतिक घटकों का दीर्घकालीन अध्ययन आवश्यक होता है।
इन घटकों में कैचमेंट की साइज एवं उसका ढाल; बरसात की मात्रा, चरित्र, रन-ऑफ और तीव्रता; पानी द्वारा मिट्टी का परिवहन करने की क्षमता; चट्टानों के अपक्षय की दर, जंगल की सघनता और वेस्टवियर से बाहर निकलने वाले पानी की मात्रा इत्यादि मुख्य हैं। भीमकुण्ड के तोड़ दिये जाने के कारण अध्ययन सम्भव नहीं है पर माना जा सकता है कि उपर्युक्त घटक की गाद जमाव को प्रभावित करते होंगे।
भीमकुण्ड के जलाशय क्षेत्र में खोदे नलकूपों के स्ट्राटा-चार्टों के अध्ययन से पता चलता है कि सतह पर मिलने वाली काली मिट्टी की लगभग दो मीटर मोटी परत के नीचे चिपकने वाली मिट्टी पाई जाती है। चिपकने वाली मिट्टी के कण छोटे और रंग हलका पीला है। कणों की उत्पत्ति कैचमेंट में मिलने वाले बलुआपत्थर की टूटन के कारण हुई है। गाद की परत की अधिकतम मोटाई लगभग 28.06 मीटर है।
भीमकुण्ड का कैचमेंट पहाड़ी और कहीं-कहीं खड़े ढाल वाला है। नूरगंज, भियापुरा और खिल्लीखेड़ा ग्रामों में खोदे नलकूपों में, भीमकुण्ड के कैचमेंट से आने वाले मलवे में मिट्टी के छोटे कणों के साथ रेत, बजरी और बोल्डर की परतें मिलती हैं। इन स्थानों पर मिली रेत एवं बजरी की परत की अधिकतम मोटाई सात मीटर है। वह जलाशय की तली में मिलती है।
यह स्थिति कैचमेंट से तेज गति से आने वाले पानी की परिवहन क्षमता को दर्शाती है। इस प्रकार का मिश्रित मलवा भीमकुण्ड जलाशय के किनारों पर, कई जगह मिलता है। गौरतलब है कि कैचमेंट से आने वाले मलवे का मुख्य घटक छोटे कणों वाली मिट्टी है। छोटे कणों वाली मिट्टी का मिलना इंगित करता है कि भीमकुण्ड जलाशय के कैचमेंट में स्थित जंगल घने थे और भूमि कटाव छोटे कणों तक सीमित था।
जल विज्ञानियों के अनुसार, जब जलाशय में एक ही दिशा से पानी आता है तो मलवे के बड़े टुकड़े जलाशय के प्रारम्भिक हिस्से में और क्रमशः छोटे कण अन्त में जमा होते हैं पर यदि आवक चारों ओर से हो तो कणों के जमाव का पैटर्न बिलकुल अलग होगा। भीमकुण्ड में लगभग सभी जगह छोटे कणों का जमाव हुआ है इसलिये माना जा सकता है कि जलाशय में पानी की आवक चारों तरफ से थी।
उल्लेखनीय है कि भीमकुण्ड केवल 400 साल तक अस्तित्व में रहा इसलिये उसके जलाशय में गाद का जमाव केवल 400 साल तक ही हुआ है। विदित है कि भीमकुण्ड में गाद की परत की अधिकतम मोटाई 28.06 मीटर है। अंकगणितीय अनुमान के अनुसार गाद जमाव की सालाना दर लगभग 7 सेंटीमीटर हो सकती है। लेखक का मानना है कि गाद जमाव की दर के सही सही आकलन के लिये गहन अध्ययन की आवश्यकता है।
एक हजार साल पहले के सालाना वाष्पीकरण के आँकड़े अनुपलब्ध है। वाष्पीकरण आँकड़ों की अनुपलब्धता के कारण, उनकी उपेक्षा की गई है।
भीमकुण्ड के वेस्टवियर की जानकारी किनकेड की रिपोर्ट से मिलती है। किनकेड के अनुसार भीमकुण्ड का वेस्टवियर, भोजपुर के पूर्व में लगभग दो मील दूर एक तिकोनी घाटी में स्थित है। परमारों ने इस वेस्टवियर का निर्माण सेन्डस्टोन की ठोस चट्टानों को काट कर किया था। इस वेस्टवियर की समुद्र की सतह से ऊँचाई 460 मीटर से थोड़ी अधिक है।
किनकेड को जलाशय की पाल पर कहीं-कहीं जल भराव के चिन्ह मिले हैं जिनके आधार पर, उसने अनुमान लगाया था कि पानी का अधिकतम स्तर पाल से लगभग 1.83 मीटर नीचे रहा होगा। वेस्टवियर की ऊँचाई और जल भराव चिन्हों के आधार पर भीमकुण्ड का अधिकतम जलस्तर 460 मीटर होना चाहिये। इस अनुमान का एक और आधार है।
यह आधार कलियासोत नदी और पातरा नाले के बीच की जल विभाजक रेखा की बंगरसिया ग्राम के निकट की ऊँचाई का स्तर है। बंगरसिया ग्राम के निकट, इस काल्पनिक जल विभाजक रेखा की ऊँचाई समुद्र की सतह से 460 मीटर से थोड़ा अधिक है इसलिये माना जा सकता है कि भीमकुण्ड का अधिकतम जल स्तर 460 मीटर ही होना चाहिए।
लेखक ने, ऊपर उल्लिखित सभी सांकेतिक प्रमाणों के आधार पर भीमकुण्ड के अधिकतम जल स्तर को 460 मीटर मान कर विलुप्त भीमकुण्ड की सम्भावित आकृति ज्ञात की है। इस आकृति और भीमकुण्ड के कैचमेंट को चित्र बारह में दर्शाया है। इस कैचमेंट की प्रमुख नदियाँ बेतवा, कलियासोत और कोलांश हैं।
लेखक ने भीमकुण्ड के जलाशय का क्षेत्रफल ज्ञात करने के लिये कम्प्यूटर आधारित डिजिटाइजेशन विधि का उपयोग किया है। इस विधि से जलाशय का क्षेत्रफल 40020 हेक्टेयर तथा उसमें स्थित द्वीपों का क्षेत्रफल 1460.35 हेक्टेयर आता है।
प्रसंगवश उल्लेख है कि सबसे पहले किनकेड ने ही भीमकुण्ड के जलाशय के आकार और उसकी आकृति का अनुमान लगाया था। किनकेड के अनुसार जलाशय का क्षेत्रफल 250 वर्गमील (65,000 हेक्टेयर) था। लेखक और किनकेड के क्षेत्रफल तथा आकृति सम्बन्धी अनुमानों में भिन्नता है।
भीमकुण्ड को बेतवा और उसकी सहायक नदियों यथा कलियासोत (कोलांश के आंशिक कैचमेंट), अजनार, भुंशी, गोदर, केरवा, गेरवा, जामनी, सेगुर और सनोटी इत्यादि से पानी की पूर्ति होती थी।
अगले पन्नों में लेखक ने इस कहानी से जुड़े कतिपय तकनीकी पक्षों की चर्चा की है। लेखक का मानना है कि यह चर्चा नदी वैज्ञानिकों, भूवैज्ञानिकों, इतिहासकारों एवं पुरातत्ववेत्ताओं के लिये आकर्षक सामग्री पेश करती है। इस कहानी में कलियासोत से जुड़ी किंवदन्ती की सच्चाई को भी समझने का प्रयास किया गया है। ज्ञातव्य है कि किंवदन्ती के अनुसार कलियासोत विलुप्त नदी है जिसे कालिया गोंड के सुझाव पर नया जीवन मिला।
इस क्षेत्र की प्रमुख नदी बेतवा है। कलियासोत और कोलांश उसकी सहायक नदियाँ हैं। भीमकुण्ड बनने के बाद कलियासोत की कहानी बदली तो बड़े तालाब ने कोलांश की पहचान को पूरी तरह बदल दिया।
लेखक के अनुसार कलियासोत नदी की कहानी के तीन अध्याय हैं। पहला अध्याय मौजूदा जल मार्ग अर्थात भीमकुण्ड के टूटने के बाद की लगभग 600 साल पुरानी कहानी को बयान करता है। दूसरा अध्याय, भीमकुण्ड बनने के कारण उसके जल मार्ग में हुई कटौती और अस्तित्व की समाप्ति के आख्यान से जुड़ा है। दूसरे अध्याय की कहानी की उम्र केवल 400 साल है। तीसरा अध्याय, भीमकुण्ड बनने के पहले की पुरानी प्राकृतिक कहानी का बखान है। इस पुरानी कहानी की उम्र कई करोड़ साल है। यह पुरानी कहानी कलियासोत नदी के जन्म लेने और उसकी घाटी के विकास की कहानी है।
कलियासोत नदी की कहानी का पहला (मौजूदा) अध्याय बताता है कि उसका उद्गम, भदभदा के वर्तमान वेस्टवियर के थोड़े ऊपर है। वर्तमान में यह नदी अपने उद्गम से निकल कर भदभदा वेस्टवियर, कलियासोत बाँध, सलैया, हिनोतिया आलम, बिलखिरिया, ग्वारीघाट, नरेला हनुमन्तसिंह, टीलाखेड़ी और पिपलिया होते हुए भोजपुर ग्राम से लगभग 500 मीटर पहले बेतवा नदी में मिलती है।
बेतवा नदी में मिलने के पहले यह नदी टीलाखेड़ी के पास स्थित भीमकुण्ड की एक किलोमीटर लम्बी पाल के निकट पहुँच, पाल के लगभग समान्तर चलते हुए बेतवा से मिलती है। यह कलियासोत नदी की मौजूदा कहानी है। इस कहानी की उम्र लगभग 600 साल है।
इस कहानी के अनुसार कलियासोत नदी के टीलाखेड़ी तक के मार्ग को प्रकृति ने और उसके बाद भीमकुण्ड की मानव निर्मित पाल ने नियंत्रित किया। पिछले 600 सालों की यात्रा के अन्तिम पड़ाव के दौरान बीसवीं सदी में उसके मार्ग में कलियासोत बाँध बना है।
कहानी के दूसरे अध्याय का आगाज भीमकुण्ड बनने के बाद दसवीं सदी में हुआ। लेखक का मानना है कि भीमकुण्ड जलाशय की उत्तरी सीमा, भोपाल के दक्षिण में स्थित बिलखिरिया खुर्द ग्राम के पास थी यह गाँव राष्ट्रीय राजमार्ग 12 पर स्थित रतनपुर ग्राम के पश्चिम में है।
भीमकुण्ड के अस्तित्व में आते ही कलियासोत नदी का सफर, उद्गम (भदभदा) से प्रारम्भ हो बिलखिरिया खुर्द पर भीमकुण्ड के जलाशय में विलीन होते ही समाप्त हो गया। भीमकुण्ड के जलाशय में कलियासोत के विलीन होने की कहानी किसी भी नदी की सामान्य कहानी की तरह है जिसके मुताबिक नदियाँ उद्गम से निकलकर किसी बड़ी नदी, जलाशय या समुद्र से मिलकर अपनी यात्रा पूरी करती हैं। कहानी के दूसरे अध्याय के अनुसार कलियासोत नदी के भीमकुण्ड से मिलन की कहानी 10 वीं सदी में शुरू हुई और सन् 1434 में उसका समापन हुआ।
कहानी का तीसरा अध्याय कलियासोत नदी की पुरानी कहानी का सबसे अधिक दिलचस्प भाग है। इस दिलचस्प भाग से सम्बन्धित तीन प्रमुख बातों का जिक्र आगे किया गया है। इन बातों को समझने के लिये पुराने युगों में हुए क्रमिक बदलावों को समझना होगा।
ग़ौरतलब है कि कलियासोत नदी का उद्गम आधुनिक भदभदा के पास है। यह स्थान कलियासोत और कोलांश नदियों के कैचमेंट की जल विभाजक रेखा के पास है। कलियासोत के उद्गम क्षेत्र के आसपास के भूभाग को चित्र तेरह में दिखाया गया है। इस चित्र में जल विभाजक रेखा के अतिरिक्त भोपाल का बड़ा तालाब, छोटा तालाब और अनेक छोटी-छोटी नदियाँ प्रदर्शित हैं।
चित्र तेरह में दिखाई गाढ़ी अनियमित रेखा कलियासोत और कोलांश नदी घाटियों पर बरसे पानी का बँटवारा करने वाली काल्पनिक रेखा है। इस रेखा को वैज्ञानिक भाषा में जल विभाजक रेखा कहते हैं। इस चित्र में कलियासोत नदी का उद्गम और कलियासोत और कोलांश नदी-घाटियों की जल विभाजक रेखा के दोनों ओर का क्षेत्र गोल घेरे में दर्शाया है।
यह वैज्ञानिक हकीकत है कि जल विभाजक रेखा के दोनों ओर का ढाल एक दूसरे के विपरीत दिशा में होता है। यह प्राकृतिक व्यवस्था है। यही प्राकृतिक व्यवस्था नदियों के प्रवाह की दिशा तय करती है। इस व्यवस्था के कारण कोलांश घाटी और कलियासोत घाटी की नदियों के जल प्रवाह की दिशा हर कालखण्ड में एक दूसरे के विपरीत होगी।
इसका अर्थ है कि कोलांश नदी घाटी का पानी कलियासोत नदी घाटी में या कलियासोत नदी घाटी का पानी कोलांश नदी में नहीं बह सकता। यह वैज्ञानिक यथार्थ है पर वैज्ञानिक हकिकत दर्शाती है कि बरसात में बड़े तालाब का पानी, इस वैज्ञानिक यथार्थ की अवहेलना कर कलियासोत नदी के रास्ते प्रवाहित होता है। यही हमारी कहानी के तीसरे अध्याय का सबसे अधिक दिलचस्प किस्सा है। इसे समझने के लिये आगे चर्चा की गई है।
ग़ौरतलब है कि परमारकालीन किंवदन्ती में कलियासोत को लुप्त नदी कहा गया है। यह सम्भव है कि वह अपने उद्गम पर बारहमासी नहीं हो पर केवल इसी कमी के कारण उसे लुप्त नदी का खिताब नहीं दिया जा सकता। किंवदन्ती कहती है कि बड़े तालाब का निर्माण कर कोलांश नदी के मार्ग को 90 डिग्री से मोड़कर कलियासोत के रास्ते प्रवाहित किया।
चित्र तेरह में कोलांश और कलियासोत नदी की जल विभाजक रेखा दर्शाई गई है। इस जल विभाजक रेखा के पश्चिम से कलियासोत नदी और पूर्व से एक नाला, बड़े तालाब (कोलांश घाटी) की दिशा में बहता है। इन दोनों के उद्गम एक दूसरे के अत्यन्त करीब हैं।
चित्र तेरह दर्शाता है कि बड़े तालाब को मिलने वाला नाला और कलियासोत नदी का प्रारम्भिक मार्ग कमजोर चट्टान पर स्थित है। इस कारण सम्भव है कि दोनों ने अपने-अपने जलमार्ग में आने वाली कमजोर चट्टान को काट कर संकरी घाटी विकसित की हो और शीर्ष कटाव ने उनके उद्गमों के बीच की दूरी कम की हो। यह सम्भावना चित्र तेरह में दिखाई देती है।
परमारकाल में बड़ा तालाब बना। बरसात से तालाब का जल स्तर बढ़ा। उसके भरने से डूब क्षेत्र का चारों ओर विस्तार हुआ। डूब क्षेत्र के विस्तार ने कलियासोत नदी और बड़े तालाब की ओर बहने वाले नाले के बीच की दूरी को समाप्त किया।
इस कारण बड़े तालाब का कुछ पानी लगभग लम्बवत डायवर्ट हुआ और कलियासोत नदी के रास्ते बहा। इसी दौर में बड़े तालाब का अतिरिक्त पानी रेतघाट और कमला पार्क की पाल में स्थित सुरंग से बहता था। गौरतलब है कि नवाब काल में भदभदा के वर्तमान वेस्टवियर से 150 मीटर पहले चार फुट ऊँची दीवाल बनाई गई।
दीवाल के बनने से बड़े तालाब के जल स्तर में वृद्धि हुई। जल स्तर में वृद्धि के कारण बड़े तालाब की सुरंग से पानी निकलने की अवधि में इज़ाफा हुआ। लेखक की दृष्टि में इन सारी घटनाओं की हकीकत और उनके प्रभावों को जानने के लिये शोध करने की आवश्यकता है।
भारत में नदी-अपहरण की प्राकृतिक घटनाओं के अनेक उदाहरण मौजूद हैं। सरस्वती नदी एक विलुप्त नदी है। इसके अलावा कोसी की सहायक नदी अरुण, गंगा की सहायक नदी भागीरथी और ब्रह्मपुत्र की सहायक नदी सांपी नदी-अपहरण के अन्य उदाहरण हैं। यह सभी मामले, बड़ी मछली द्वारा छोटी मछली को खा जाने जैसे हैं।
इस क्रम में सम्भव है परमारकालीन किंवदन्ती के मूल में कलियासोत के विलुप्त होने की घटना नदी अपहरण की प्राकृतिक घटना हो। इस किंवदन्ती के अनुसार कलियासोत नदी तंत्र ने अपनी जल विभाजक सीमाओं का उल्लंघन कर कोलांश नदी घाटी के पानी का अपहरण किया।
यदि इस सम्भावना को मंजूर किया जाता है तो प्रश्न उठता है कि कलियासोत नदी घाटी के निचले हिस्से का पानी, ढाल सम्बन्धी प्राकृतिक कायदे-कानून तोड़कर कोलांश नदी की घाटी में कैसे और क्यों प्रवेश करेगा? यह सम्भावना अतार्किक है और उसके पक्ष में वैज्ञानिक तथ्यों का अभाव है।
यह प्रकरण विलुप्त नदी को जिन्दा करने का प्रकरण नहीं है। यह प्रकरण, बड़े तालाब के देशी पानी के कलियासोत नदी मार्ग से बहने का ही है।
कलियासोत नदी की कहानी का तीसरा अध्याय उसके उद्गम पर उसकी घाटी की चौड़ाई से सम्बन्धित है। उल्लेखनीय है कि उद्गम पर हर नदी की घाटी की चौड़ाई बहुत कम होती है। गौरतलब है कि कलियासोत नदी के उद्गम (भदभदा) पर उसकी घाटी की चौड़ाई बहुत अधिक है। यह असामान्य चौड़ाई है। उद्गम पर घाटी की असामान्य चौड़ाई, असामान्य भूवैज्ञानिक परिस्थितियों को दर्शाती है। इसे आगे समझने का प्रयास किया गया है।
कलियासोत नदी के उद्गम क्षेत्र में लाल (सेंडस्टोन) और काले (बेसाल्ट) रंग की पृथक-पृथक चट्टानें मिलती हैं। पैठनकर और सक्सेना का अध्ययन बताता है कि भदभदा के पुराने नवाबकालीन पुल के पास सेंडस्टोन और बेसाल्ट लगभग एक ही ऊँचाई पर मिलते हैं।
भूवैज्ञानिक नजरिए से यह असहज स्थिति भूवैज्ञानिक कारणों (फाल्टिंग) से निर्मित हुई है। ज्ञातव्य है कि फाल्ट, चट्टानों को काटते हैं और कटे भागों को विपरीत दिशाओं में विस्थापित करते हैं। विस्थापित सतह कमजोर होती है इसलिये जब नदी, फाल्ट के ऊपर से प्रवाहित होती है तब वह चट्टानों के कमजोर हिस्सों को बहुत तेजी से काटती है।
इस प्रक्रिया में चौड़ी घाटी का विकास होता है। इस प्रकार बनी घाटियों को स्ट्रक्चरल घाटी कहते हैं। कलियासोत नदी के उद्गम के निकट यही परिस्थितियाँ मौजूद थीं। पैठनकर और सक्सेना का अध्ययन इसी हकीक़त को इंगित करता है।
स्ट्रक्चरल घाटी की मौजूदगी के कारण उद्गम पर असामान्य चौड़ी घाटी विकसित हुई। कलियासोत नदी की कहानी का यह हिस्सा, चौड़ी घाटी (संरचनात्मक घाटी) के जन्म की कहानी की हकीक़त को उजागर करता है। फाल्ट के असर के समाप्त होते ही कलियासोत नदी की घाटी की चौड़ाई कम हो जाती है। कहानी का बाकी भाग, कोलांश की कहानी के साथ बयान किया गया है।
कलियासोत नदी की कहानी का तीसरा भाग, उसके 1000 साल से अधिक पुराने मार्ग की हकीक़त से जुड़ा है। यह विदित है कि दसवीं सदी में भीमकुण्ड बना। चित्र बारह में दर्शाए नक्शे को देखने से पता चलता है कि भीमकुण्ड के जलाशय की सीमाओं ने कलियासोत नदी के सफर को बिलखिरिया खुर्द तक सीमित कर दिया।
भीमकुण्ड बनने के पहले कलियासोत नदी मंडीद्वीप से लगभग 6 किलोमीटर दूर स्थित टिल्लाखेड़ी गाँव के आगे स्थित पहाड़ी दर्रे से होते हुए गोकुलकुण्डी ग्राम के बाद बेतवा को मिलती थी। यह संगम भोजपुर से लगभग पाँच किलोमीटर आगे है। ग़ौरतलब है कि भीमकुण्ड की पाल दूसरी ओर उसके पुराने जल मार्ग के अवशेषों को आज भी नंगी आँखों से देखा जा सकता है।
ये अवशेष भीमकुण्ड की एक किलोमीटर लम्बी पाल के लगभग लम्बवत हैं। इन अवशेषों को टोपोशीट (55 इ/12)ए, सेटेलाइट इमेजरी में पहचाना और फिल्ड में आसानी से देखा जा सकता है। उपर्युक्त आधार पर स्पष्ट है कि भीमकुण्ड बनने के पहले कलियासोत नदी का बेतवा से संगम वर्तमान संगम से कुछ किलोमीटर आगे था।
बेतवा नदी तंत्र की दूसरी महत्त्वपूर्ण नदी कोलांश है। कोलांश नदी-तंत्र की कहानी कलियासोत की कहानी से भिन्न है। उसकी प्राकृतिक कहानी को बड़े तालाब के निर्माण ने बदला है। इसने भले ही उसकी पहचान बदल दी पर उसका भूगोल और भूमिका लगभग यथावत है। अगले पन्नों में कोलांश नदी के जलमार्ग के उतार-चढ़ाव की चर्चा की गई हैं।
कोलांश नदी की कहानी से जुड़ा पहला सवाल यह है कि जब भोपाल का बड़ा तालाब नहीं बना था, तब कोलांश नदी का प्राकृतिक जलमार्ग कौन सा था? वह कहाँ-से-कहाँ तक बहती थी? वह किस प्रमुख नदी की सहायक नदी थी? उसका संगम कहाँ था?
बड़े तालाब के निर्माण ने उसकी प्राकृतिक कहानी पर क्या असर डाला? क्या बड़े तालाब के बनने के कारण उसका पुराना मार्ग विलुप्त हो गया? यदि पुराने जलमार्ग का अस्तित्व बचा है तो वह और कहाँ है? अगले पन्नों में इन्ही सब प्रश्नों के उत्तर तलाशने का प्रयास किया गया है।
कोलांश नदी का उद्गम सीहोर जिले के बमुलिया गाँव के पास है। बमुलिया से चलकर वह अपनी सहायक नदियों का पानी समेटते-समेटते भोपाल जिले में प्रवेश करती है। बड़े तालाब के बनने के कारण उसका परमारकालीन जल मार्ग डूब-क्षेत्र में आने के कारण छुप गया पर नदी का पानी परमार काल से लेकर नवाब काल तक भदभदा रेतघाट और सुरंग के रास्ते बहता रहा।
भदभदा से निकला पानी कलियासोत नदी के रास्ते और रेतघाट तथा सुरंग से निकला पानी तथाकथित पातरा नाले में बहता रहा। सन् 1963 में स्थिति बदली। भदभदा वेस्टवियर की ऊँचाई बढ़ी। ऊँचाई बढ़ने के बाद कोलांश नदी-तंत्र का अधिकांश पानी बड़े तालाब में जमा होने लगा है।
किसी-किसी साल कुछ ज्यादा पानी भदभदा के रास्ते कलियासोत नदी को मिला पर रेतघाट की ऊँचाई बढ़ने तथा सुरंग के बन्द होने के बाद से छोटे तालाब को उसका पानी मिलना लगभग बन्द हो गया।
चित्र चौदह, बड़े तालाब के आसपास के क्षेत्र का सेटेलाईट से लिया चित्र है। इस चित्र में बड़ा तालाब गहरे रंग से प्रदर्शित है। इस चित्र में तालाब के भीतर लगभग दो तिहाई दूर तक कोलांश नदी का जल मार्ग (हलकी रेखा) दिखाई देता है।
बड़े तालाब के कमला पार्क की ओर वाले अन्तिम एक तिहाई भाग में तालाब की गहराई अधिक है। इस भाग में कोलांश नदी का मार्ग दिखाई नहीं देता पर प्रारम्भिक दिशाबोधी संकेतों के आधार पर कहा जा सकता है कि कोलांश नदी कमला पार्क की ओर प्रवाहित हो रही है। इसका यह अर्थ भी है कि बड़े तालाब के निर्माण के पहले कोलांश नदी कमला पार्क के रास्ते बहती थी।
बड़े तालाब के भीतर जिस मार्ग से कोलांश नदी बहती है उस मार्ग में चार बहुत छोटी-छोटी सीधी रेखाएँ दिखाई देती हैं। वैज्ञानिक भाषा में इन रेखाओं को लीनियामेंट कहते हैं। यह कमजोर चट्टानों का क्षेत्र होता है। इसने कोलांश नदी के प्रारम्भिक जलमार्ग की दिशा को आंशिक रूप से प्रभावित किया है पर जलमार्ग की मूल दिशा मोटे तौर पर कमला पार्क की ही ओर है।
यह सच है कि बड़े तालाब की परमारकालीन पाल ने कोलांश नदी के प्राकृतिक प्रवाह को रोककर उसे जलाशय में कैद किया है पर वह हस्तक्षेप कोलांश नदी की घाटी और जलमार्ग के भौतिक अस्तित्व को नहीं मिटा पाया। इसलिये जब बड़े तालाब का अतिरिक्त पानी कमला पार्क की सुरंग और रेतघाट के रास्ते से बाहर निकला तो वह कोलांश की घाटी में ही प्रवाहित हुआ।
उसने कोलांश नदी के मूल मार्ग को अपनाया। उल्लेखित है कि बड़े तालाब के बनने के पहले कोलांश नदी इसी मार्ग से चलकर इस्लामनगर के पास बेतवा से मिलती थी। अब वही नदी, पातरा के नाम से इस्लामनगर के पास बेतवा से मिलती है। प्राकृतिक नदी तंत्र (व्यवस्था) में कहीं कोई फर्क नहीं, कहीं कोई बदलाव नहीं। केवल पानी की कहानी में उतार-चढ़ाव आये। कोलांश नदी की कहानी की यह पहली हकीक़त है।
रजिया सुल्तान और रफत सुल्तान द्वारा सम्पादित किताब भोपाल दर्पण में बताया गया है कि बड़े तालाब की पाल बनने के बाद उसका अतिरिक्त पानी नाले की शक्ल में बहता था। छोटे तालाब के बनने के बाद वही पानी छोटे तालाब से होता हुआ पुलपुख्ता के रास्ते बहने लगा। यही पातरा नदी का प्रारम्भिक भाग है।
ग़ौरतलब है कि कमला पार्क पर कोलांश घाटी की चौड़ाई और पुलपुख्ता पर पातरा घाटी की चौड़ाई मोटे तौर पर समान है। इसलिये नदी घाटी की चौड़ाई की समानता के आधार पर कहा जा सकता है कि कोलांश और पातरा पृथक घाटियाँ नहीं है। वे, एक ही नदी-घाटी के अंग हैं।
ग़ौरतलब है कि उद्गम (पुलपुख्ता) पर पातरा नाले की घाटी की चौड़ाई 280 मीटर से अधिक है। यह चौड़ाई असामान्य है क्योंकि किसी भी नदी द्वारा चट्टानी उद्गम पर 1000 साल की अल्प अवधि में 280 मीटर से अधिक चौड़ी घाटी का विकास सम्भव नहीं है। अर्थात वह कोलांश घाटी ही है।
कोलांश नदी और पातरा नदी, हकीक़त में एक ही नदी के दो नाम हैं। एक क्षण को यदि यह स्वीकार कर भी लिया जाये कि कोलांश और पातरा दो जुदा-जुदा नदियाँ हैं तो उनकी अपनी-अपनी घाटियाँ और अपने-अपने कैचमेंट होना चाहिए। प्रश्न उठता है कि उनकी जुदा-जुदा घाटियाँ या कैचमेंट कहाँ है?
जुदा-जुदा घाटियों या कैचमेंट की अनुपस्थिति ऐसी वैज्ञानिक हकीक़त है जो प्रमाणित करती है कि पातरा की घाटी ही कोलांश नदी की घाटी है। परमारों ने नदी पथ में तालाब बनाकर केवल व्यवधान डाला है और कोलांश के पानी का अन्तरघाटी बँटवारा किया है।
अगले पन्नों में भोपाल स्थित बड़े तालाब के स्थल चयन, पाल निर्माण, जलाशय में गाद जमाव और कैचमेंट चरित्र का विवरण दिया है। इस विवरण के साथ रन-आफ पर प्रभाव डालने वाले बिन्दु और समय-समय पर वेस्टवियर की ऊँचाई बढ़ाने से जलाशय की आकृति में आये बदलावों से जुड़े कुछ तकनीकी पक्षों की चर्चा की गई है। इस चर्चा का उद्देश्य बड़े तालाब के वर्तमान और भविष्य से जुड़े कुछ बिन्दुओं पर समाज का ध्यान आकर्षित करना है।
परमारकाल में भोपाल में बड़े तालाब या अपर लेक का निर्माण किया गया था। किनकेड ने अपने आलेख में लिखा है कि जब बेतवा के कैचमेंट से भीमकुण्ड नहीं भरा तो कोलांश नदी के पानी को भीमकुण्ड में डायवर्ट करने का फैसला लिया गया। राजा भोज के निर्माणकर्ताओं को पाल बनाने के लिये भोपाल में वर्तमान कमला पार्क पर ऐसा स्थान मिला जहाँ कोलांश नदी के दोनों ओर स्थित पहाड़ियों के बीच का अन्तराल सबसे कम था।
निर्माणकताओं ने इस स्थान पर दोनों पहाड़ियों को जोड़ते हुए मिट्टी की पाल बनाई। पाल की मिट्टी (मुरम और बोल्डर) को कटाव से बचाने के लिये उसकी सतह को हजारों तराशे पत्थरों से ढँका। भीमकुण्ड और बड़े तालाब में उपयोग में लाये पत्थर और उन्हें व्यवस्थित करने की तकनीक (निर्माण कला) एक जैसी है। यह संकेत इंगित करता है कि उनका निर्माण काल और निर्माता, एक ही युग के लोग रहे होंगे।
आधुनिक बाँध निर्माण तकनीक के अन्तर्गत पाल डालने के लिये ऐसे उपयुक्त स्थान को खोजा जाता है जहाँ दो पहाड़ियों के बीच का अन्तराल न्यूनतम हो, डूब क्षेत्र की ज़मीन जल रिसाव से यथासम्भव मुक्त हो। मिट्टी का बाँध बनाते समय ध्यान रखा जाता है कि बाँध के अन्दर की मिट्टी सुरक्षित रहे। परमारकाल के कुशल शिल्पियों ने बड़े तालाब के निर्माण में इन सभी तथ्यों का पूरा-पूरा ध्यान रखा है।
सेंडस्टोन के पत्थरों के उपयुक्त संयोजन के कारण पाल के अन्दर की मुरम और बोल्डर सुरक्षित एवं संरक्षित है और बड़े तालाब के डूब क्षेत्र की जमीन, अपारगम्य चट्टानों से बनी होने के कारण जल सहेजने के लिये उपयुक्त है। उपर्युक्त सभी तथ्य परमारकालीन शिल्पियों की बेहतर इंजीनियरिंग समझ के अद्वितीय उदाहरण हैं। यह भारतीय इंजिनियरिंग का लगभग 1000 साल पुराना उदाहरण है। यह उदाहरण 1000 साल पुराना होने के कारण पाश्चात्य जल विज्ञान के प्रभाव से मुक्त है।
बड़े तालाब का निर्माण, भीमकुण्ड को भरने के लिये हुआ था। नवाबकाल में ज्यादा पानी निकासी के साथ-साथ तालाब में संचित पानी का उपयोग राजमहल सहित नगरवासियों की पेयजल, निस्तार जरूरतों और बाग-बगीचों की सिंचाई के लिये किया जाता होगा।
ये सभी आवश्यकताएँ बहुत कम थीं इसलिये उनकी पूर्ति और प्राकृतिक वाष्पीकरण हानि के बावजूद बड़ा तालाब बहुत कम खाली होता था। इसी कारण हर साल बरसात का गादयुक्त अधिकांश पानी कलियासोत और पातरा के रास्ते बह जाता था।
इसी कारण परमारकाल से लेकर नवाब काल तक बड़े तालाब में न्यूनतम गाद जमा हुई। यही भारतीय जल विज्ञान है जो जलाशय में गाद जमाव को न्यूनतम रखकर पाश्चात्य जल विज्ञान पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करता है।
ग़ौरतलब है कि बड़े तालाब के वेस्टवियर की ऊँचाई दो बार बढ़ाई गई है। पहली बार नवाबों के शासन काल में और दूसरी बार नए मध्य प्रदेश के बनने के बाद। वेस्टवियर की दो बार ऊँचाई बढ़ाने से बड़े तालाब की जल क्षमता और डूब क्षेत्र में दो बार वृद्धि हुई है।
सन् 1963 के बाद जल क्षमता में हुई वृद्धि के कारण उसमें बहुत अधिक मात्रा में गादयुक्त बरसाती पानी रुका। परिणामस्वरूप अपर लेक में गाद जमाव बढ़ा। इस बिन्दु के तकनीकी पक्ष के बारे में आगे चर्चा की गई है।
सन् 1956 में नया मध्य प्रदेश बना और भोपाल को उसकी राजधानी बनाया गया। भोपाल के राजधानी बनने के कारण आबादी में तेजी से वृद्धि हुई। पानी की माँग बढ़ी। पानी की बढ़ती माँग की पूर्ति की सम्भावना ज्ञात करने के लिये भारत सरकार के सेंट्रल वाटर एंड पावर कमीशन ने बड़े तालाब का अध्ययन किया।
अध्ययन के आधार पर जल संग्रहण क्षमता बढ़ाने के लिये भदभदा पर नए वेस्टवियर का निर्माण हुआ। सेंट्रल वाटर एंड पावर कमीशन के अनुमानों के अनुसार बड़े तालाब में गाद जमा होने की सम्भावित सालाना दर लगभग एक लाख तीस हजार क्यूबिक मीटर थी। गाद जमाव के हालिया आँकड़ों से पता चलता है कि बड़े तालाब में गाद जमाव की सालाना मात्रा और दर, अनुमानों से कही अधिक है।
क्षमता वृद्धि के कारण बड़े तालाब का सर्वाधिक विस्तार सीहोर जिले के काली मिट्टी वाले कृषि क्षेत्र में हुआ। दूसरे, क्षमता वृद्धि के कारण, तालाब की परिधि में भी वृद्धि हुई है। इस वृद्धि के कारण भूमि कटाव की सीमा रेखा की लम्बाई बढ़ी। जहाँ कहीं वह खेती की ज़मीन सम्पर्क में आई वहाँ-वहाँ और जहाँ-जहाँ खेतों से आने वाले नदी नाले तालाब में आकर मिलते है, उन सभी स्थानों पर उसमें गाद/मिट्टी जमा हो रही है।
जानकारों के अनुसार कोलुआखेड़ी, लाखापुर, भेंसाखेड़ी, गोरा ग्राम के पास भदभदा की स्पिल चैनल का मध्यवर्ती भाग, हलालपुर और बैरागढ़ कला के निकट तालाब के खाड़ीनुमा भाग में बहुत अधिक गाद जमा हो रही है। इन सभी को चित्र पन्द्रह में दर्शाया गया है। बड़े तालाब में गाद जमा होने के कारण उसके पश्चिमी हिस्से, मध्य-भाग और मुख्य नदी नालों के मुहानों में मिट्टी के द्वीप उभर रहे हैं। यह प्रक्रिया डेल्टा बनने जैसी है और प्राकृतिक है।
बड़े तालाब के विभिन्न हिस्सों में जमा गाद के परीक्षणों से पता चलता है कि उसकी तली के अधिकांश क्षेत्रों में जमा गाद की परत का रंग धूसर है। वह पूरी तरह ठोस नहीं है। कमला पार्क के पास जमा गाद की परत का रंग धूसर है। वह अपेक्षाकृत सख्त एवं चिकनी है।
उसकी परतों की मोटाई 2.50 मीटर से लेकर 3.0 मीटर तक और बाकी स्थानों पर गाद की परत की मोटाई 5.00 मीटर तक है। कमला पार्क के निकट मिलने वाली गाद की परत में बजरी, रेत और क्ले मिलती है, वहीं नर्म परत में बजरी को छोड़कर बाकी सभी घटक मौजूद हैं।
नर्म परत में रेत की मात्रा अपेक्षाकृत कम है। कमला पार्क के निकट मिलने वाली गाद परत में बजरी की मात्रा 6 प्रतिशत तक और रेत की मात्रा 22 प्रतिशत तक है। बड़े तालाब में कहीं-कहीं गाद की तीसरी और चौथी परत भी मिलती है जिनमें मूल चट्टानों के मौसम से प्रभावित भाग मिलते हैं।
गाद के कणों के आकार की सहायता से उसके जमा होने की परिस्थितियों को समझा जाता है। पहला, जिन स्थानों पर गाद के साथ रेत और बजरी मिलती है वे स्थान, तेज गति वाले जल प्रवाहों के मार्गों पर स्थित होते हैं।
दूसरे, गाद की अपेक्षाकृत सख्त परत, जमाव की लम्बी अवधि को और नर्म परत हाल के सालों में हुए जमाव को इंगित करती है। तीसरे, हाल के सालों में जमा गाद की परत में प्रदूषणकारी अशुद्धियाँ मिलेंगी। प्रदूषणकारी अशुद्धियों और गाद के कणों के रासायनिक संगठन से उसके मूल स्रोतों का अनुमान लगता है।
बड़े तालाब में गाद जमाव की दर में बेतहाशा वृद्धि 1963 में नया भदभदा वेस्टवियर बनने के बाद प्रारम्भ हुई है। प्रारम्भिक 23 सालों (1979-80) में उसमें 5.67 मिलियन क्यूबिक मीटर गाद जमा हो चुकी है। यह उसके उम्रदराज (कालान्तर में अनुपयोगी) होने का संकेत है।
बड़े तालाब में गाद जमाव की दर की वृद्धि, भारतीय जल विज्ञान के सिद्धान्त पर निर्मित तालाब के भूगोल को पाश्चात्य जल विज्ञान के सिद्धान्त पर आधारित भूगोल में बदलने के कारण हुआ है।
गाद जमा होने के कारण बड़ा तालाब हर साल उथला हो रहा है। उसकी जल संग्रह क्षमता घट रही है। जल संग्रह क्षमता घटने के कारण उसे जल्दी भरना चाहिए। अवलोकन बताते हैं कि उसका चरित्र बदल रहा है। उसका भराव प्रभावित हो रहा है। किसी-किसी साल वह आधा-अधूरा ही भर पा रहा है। यह स्थिति उसकी सेहत के लिये अच्छी नहीं है।
बड़े तालाब के कैचमेंट के योगदान की कहानी परमारकाल से प्रारम्भ होती है। उस समय बड़े तालाब के कैचमेंट में खूब घना जंगल रहा होगा। आबादी कम होने के कारण बहुत कम रकबे पर खेती होती होगी और भूमि कटाव न्यूनतम रहा होगा।
कैचमेंट के समृद्ध होने के कारण कैचमेंट ईल्ड और अवधि बेहतर रही होगी। तालाब से बहुत अधिक मात्रा में पानी बाहर जाता होगा। लगभग यही हालात गोंडों और नवाबों के वक्त में भी रहे होंगे। बीसवीं सदी में हालात बदलना प्रारम्भ हुआ।
पिछले लगभग पचास-साठ सालों में बड़े तालाब के कैचमेंट का वानस्पतिक आवरण बहुत तेजी से घटा है और भूमि कटाव में वृद्धि हुई है। कैचमेंट में नई-नई बसाहटें अस्तित्व में आई हैं। खेती के रकबे में कई गुना वृद्धि हुई है तथा कुओं और नलकूपों से होने वाली सिंचाई तथा रेत के खनन के कारण कैचमेंट तथा नदी पथ का भूजल सन्तुलन प्रभावित हुआ है। बड़े तालाब के कैचमेंट के मूल चरित्र के बदलाव के कारण कैचमेंट का रन-आफ-कोएफिशिएन्ट घटा, जल रिसाव बढ़ा और मेंढ़ विहीन खेती ने गाद की मूल मात्रा में कई गुना इज़ाफा किया।
परमारकालीन बड़े तालाब का प्रारम्भिक हिस्सा बेसाल्ट पर और बाद का हिस्सा विन्ध्यन सेंडस्टोन पर स्थित है। उसके प्रारम्भिक हिस्से को छोड़कर बाकी इलाक़ा पहाड़ियों से घिरा है। इन पहाड़ियों का ढाल तालाब की ओर है। कमला पार्क और भदभदा की घाटियाँ खुली घाटियाँ हैं जो जुदा-जुदा जलग्रहण क्षेत्रों का निर्माण करती हैं।
कलियासोत को जन्म देने वाली भदभदा की खुली घाटी, कलियासोत के जल ग्रहण क्षेत्र का निर्माण करती है। कमला पार्क के डाउनस्ट्रीम का इलाक़ा पातरा और हलाली नदियों की घाटियों का जन्मदाता है। ये दोनों नदियाँ बेतवा की सहायक नदियाँ है और इस्लामनगर के पास बेतवा को मिलती हैं।
बड़े तालाब का प्रारम्भिक हिस्सा जहाँ कोलांश नदी बड़े तालाब को मिलती है, लगभग 900 मीटर चौड़ा है। यहाँ से लगभग 1250 मीटर आगे, बड़े तालाब की चौड़ाई लगभग 1800 मीटर है। यह असामान्य है। कोलांश नदी घाटी की चौड़ाई के इस अन्तर का अध्ययन किया जाना चाहिए। इस अध्ययन के बाद उसके निर्माण के प्राकृतिक (भूवैज्ञानिक) कारणों को समझा जा सकेगा।
बड़े तालाब में प्रदूषण की समस्या लगातार गम्भीर हो रही है। इस समस्या का कारण बसाहटों का अपशिष्ट और खेती में प्रयुक्त कीटनाशकों, रासायनिक खादों और खरपतवारनाशकों का योगदान है। यह अवदान रासायनिक प्रकृति का है इसलिये चिन्तनीय है।
संक्षेप में बड़े तालाब के आगौर, डूब क्षेत्र, गाद जमाव और घटते योगदान से सम्बद्ध कतिपय समस्याएँ हैं जिनके कारण उसका पुनर्वास हर दिन जटिल हो रहा है। लगता है कि उपर्युक्त जटिल हक़ीक़तों के कारण उसे नए सिरे से समझने की आवश्यकता है। यही समझ बड़े तालाब के भविष्य को तय करेगी। अन्त में कुछ चर्चा बड़े तालाब और विलुप्त भीमकुण्ड जलाशय में गाद जमाव की।
अ. भारतीय जल विज्ञानियों ने बड़े तालाब के मूल डूब क्षेत्र और उसके कैचमेंट के अनुपात को लगभग 1.61:100 रखा। अर्थात कैचमेंट की तुलना में डूब क्षेत्र अत्यल्प रखा गया। इस कारण लगभग 1000 साल (सन् 1963) तक उसमें लगभग तीन मीटर गाद जमा हुई। अर्थात डूब क्षेत्र को छोटा रखकर जलाशय को लगभग गादमुक्त रखा जा सकता है इसलिये वह दीर्घायु और उसकी जल संग्रहण क्षमता विश्वसनीय होती है।
आ. भारतीय जल विज्ञानियों ने भीमकुण्ड के डूब क्षेत्र और उसके कैचमेंट के अनुपात को 27:100 रखा। अर्थात कैचमेंट की तुलना में डूब क्षेत्र को अपेक्षाकृत बड़ा रखा गया। इस कारण 400 साल में दस गुना अधिक (लगभग तीस मीटर) गाद जमा हुई। अर्थात डूब क्षेत्र को अपेक्षाकृत बड़ा रखकर जलाशय में गाद जमाव को बढ़ावा दिया जा सकता है पर गाद जमाव के कारण उसकी क्षमता में निरन्तर कमी होगी। गाद भरने की प्रक्रिया के पूरा होने के बाद उपजाऊ इलाक़ा हासिल किया जा सकता है।
बड़े तालाब और भीमकुण्ड का उपर्युक्त उदाहरण सिद्ध करता है कि भारतीय जल विज्ञानियों ने उपर्युक्त ज्ञान का उपयोग कर भोपाल के बड़े तालाब को 1000 साल तक लगभग गादमुक्त रखा, वहीं भीमकुण्ड में अत्यधिक गाद संचित करा कर लगभग 400 वर्ग किलोमीटर का विशाल उपजाऊ क्षेत्र उपलब्ध कराया।
इस अध्याय में दिया विवरण इतिहास और बिसराए देशज जल विज्ञान पर मौजूद धुंध को कम करने का प्रयास करता है तो कहीं-कहीं कुछ आशंकाएँ व्यक्त करता है।
लगता है कि इनकी तह में जाने, उनको तराशने और प्राप्त आँकड़ों को परिष्कृत करने की आवश्यकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति के बाद भीमकुण्ड और बड़े तालाब के बारे में न केवल बेहतर समझ बनेगी वरन मध्य प्रदेश के पुरातन जल विज्ञान को किसी हद तक समझा जा सकेगा।
भारत का परम्परागत जल विज्ञान (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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