जल संरक्षण

मालधारियों के चमत्कार

डाउन टू अर्थ


खारी जमीन और खारे पानी के बीच अपनी साल भर की पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिये ईजाद की ‘विरडा’ प्रणाली

गुजरात के कच्छ जिले के उत्तरी मरुस्थलीय क्षेत्रों में स्थित बन्नी के विस्तृत रेतीले चारागाह में रहने वाले खानाबदोश मालधारी खारी जमीन और खारे पानी के बीच अपनी सालभर की पानी की जरूरतों के लिये खारे पानी के स्तर के ऊपर ही मीठा पानी जमा लेते हैं। इस क्षेत्र की कठिन जलवायु और अपर्याप्त वर्षा ने उन्हें वर्षाजल को अच्छी तरह जमा रखने के लिये उपयुक्त जगह खोजने के लिये विवश किया। सदियों से प्रकृति सामंजस्य में रहने से वे उसकी विभिन्न मनोदशाओं को अच्छी तरह समझ चुके हैं। प्रकृति की इन अनियमितताओं से बचने के लिये उन्होंने एक विशेष तकनीक ‘विरडा’ को विकसित किया है जो वर्षाजल को जमा करने की एक अद्भुत व्यवस्था है।

बन्नी चारागाह कच्छ के बड़े रन का एक हिस्सा है और कच्छ के छोटे रन के साथ वह अरब सागर की ‘पुरानी भुजाओं’ का हिस्सा भी है, जो गाद से बन्द हो चुका है। प्रारम्भ में यहाँ 40 प्रकार की घास पाई जाती थी। आज इनमें से सात-आठ किस्में ही बची हैं। यहाँ जमीन की बनावट, वनस्पति और मिट्टी बड़े रन के खारे दलदलों से काफी भिन्न है। ‘विरडा’ एक प्रकार का छिछला कुआँ होता है, जिसकी खुदाई प्राकृतिक झीलों में की जाती है। यहाँ इस क्षेत्र के निवासी अपनी साल भर की पानी की जरूरतों को पूरा करने लायक वर्षाजल को जमा करते हैं। यह तकनीक मालधारियों की विपरीत स्थिति के अनुकूल खुद को ढालने की क्षमता को भली-भाँति दर्शाती है। वे साफ वर्षाजल के ऊपरी सतह तक पहुँचने वाले एक ढाँचे को तैयार करते हैं। जैसे ही वर्षाजल को निकाला जाता है, नीचे स्थित खारा पानी ऊपर उठने लगता है और ‘विरडा’ के निचले हिस्से में जमा हो जाता है।

चूँकि बन्नी की स्थलाकृति काफी समतल है, इसलिये यहाँ की जमीन पर बहुत कम ढाल जगहें (झील) हैं। मानसून के मौसम में पानी के बहाव को देखकर मालधारी इन जगहों का पता लगाते हैं। इसके अतिरिक्त उन्हें यह भी पता है कि वर्षाजल मिट्टी में रिसकर नीचे जाने के बाद खारे भूजल के ऊपर जमा हो जाता है। वर्षा के पानी और खारे जल के घनत्व में फर्क से ऐसा होता है। और अधिक साफ पानी को जमा करने के लिये वे भूजल से करीब 1 मीटर ऊपर जमा हुए वर्षाजल की ऊपरी सतहों पर कई विरडाओं की खुदाई करते हैं। पानी के इन दो (मीठे और खारे) स्तरों के बीच खारे पानी का एक संक्रमण कटिबन्ध होता है।

पिछले कुछ दशकों में इन खानाबदोश मालधारियों ने गाँवों में बसकर रहना शुरू कर दिया है। अपने गाँवों के समीप इन्होंने विरडाओं की खुदाई भी की है। इस तरह, इन विरडाओं के लिये उपयुक्त स्थान और इनके निर्माण, संरक्षण से सम्बन्धित जानकारी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक आसानी से पहुँच पा रही है। वर्षाजल को जमा करने की यह विशिष्ट तकनीक आज भी प्रयोग में लाई जा रही है।

यह तकनीक इस क्षेत्र की नाजुक पारिस्थितिकी के निर्विघ्न परिचालन पर निर्भर करती है। साफ पानी के जमीन में निर्बाध परिगमन के लिये अत्यधिक घास के आवरण का होना अति आवश्यक है। मानसून के दिनों में उत्तरी दिशा में बहने वाली नदियों का पानी कच्छ के बड़े रन में समुद्री पानी को आने से रोकता है, जिससे मिट्टी के खारेपन को नियंत्रित करने में सहायता मिलती है। प्राकृतिक वनस्पति को बचाने और जानवरों की संख्या को सीमित रखने से पारिस्थितिक संतुलन कायम रहता है। कच्छ के बड़े रन से सिर्फ पाँच किमी दूर स्थित धोरडो गाँव में पानी को जमा रखने की पाँच प्राकृतिक झीलें हैं। यहाँ पाँच विरडाओं का निर्माण किया गया है, जिनमें से गाँव के उत्तरी हिस्से में स्थित विरडा सबसे मुख्य है। इसमें सबसे अधिक पानी जमा रहता है। एक साधारण मानसून के दौरान (यहाँ औसत 317 मिमी वर्षा होती है)। इन चार झीलों में पानी भरने के बाद अतिरिक्त पानी इस पाँचवीं झील में आकर जमा हो जाता है। इससे ज्यादा पानी हुआ तो रन की तरह बह जाता है।

मूर्तियाँ और शिल्पकलाएँ


कुछ साहित्यिक प्रसंग पानी वाले प्रबंधों में मूर्तिकला और शिल्पकला के होने का वर्णन करते हैं। इनका विस्तृत वर्णन सिर्फ 12वीं शताब्दी के अन्त में गुजरात में लिखी गई एक संस्कृत किताब, ‘अपराजिताप्रेच्छा’ और दक्षिण भारत में लिखी गई ‘विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र’ में ही मिलता है। ‘अपराजिताप्रेच्चा’ के अनुसार, किसी बावड़ी में श्रीधरा, जलसाई, 11 रूद्रों, भैरव, उमामहेश्वर, कृष्ण दंडपाणी, दिक्पाल, आठ पात्रिकाओं, गंगा और नवदुर्गा जैसे देवी-देवताओं का वास जरूर होना चाहिए।


11वीं शताब्दी में तैयार पाटण के रानी वाव को समूचे गुजरात में पाई जाने वाली बावड़ियों में सबसे सुन्दर माना जाता है। इसके गलियारे की पूरी दीवार और बावड़ी की चाहरदीवारी को देवताओं और उनके सहचरियों जैसे ब्रह्मा-ब्रह्माणी, शिव-पार्वती, भैरव-कालिका और विष्णु-लक्ष्मी की मूर्तियों से सजाया गया है। इसके अतिरिक्त भी इसमें कई देवी-देवताओं, सुरसुंदरी और अप्सराओं को नाच की भिन्न-भिन्न मुद्राओं और तरह-तरह के श्रृंगार की अवस्था में देखा जा सकता है।


इनके बावड़ियों में पाए जाने वाले चित्रों में दैनिक जीवन, कामुक तस्वीरें, मक्खन बिलोना, लड़ाई की तस्वीरें, राजकीय शोभायात्राएँ, सामान्य औरतों की आकृतियाँ, अलंकृत प्रस्तर गल, ज्यामितीय बनावटें, वनस्पतियों और जानवरों जैसे मूल विषयों को दर्शाते चौखट और पानी के जानवरों की तस्वीरें भी हैं। कछुए, साँप, मछली और मकर जैसे जलचरों की मूर्तियाँ सिर्फ बावड़ियों में ही पाई जाती हैं।


मुसलमानों द्वारा निर्मित बावड़ियों में वर्तिलेख और पत्तेदार टहनियों की खुदी आकृतियाँ मिलती हैं, जो कभी-कभी कलशों से निकलती हुई दिखाई देती हैं। अहमदाबाद की मस्जिदों में भी इसी प्रकार की सजावट है। हिन्दू परम्परा के अनुसार बनवाई गई बावड़ियों में, जिनका निर्माण मुसलमानों के शासनकाल में किया गया था, भी इस प्रकार की आकृतियों की नकल की गई थी। मध्यकाल में कई बावड़ियों का निर्माण किया गया था। सबसे आधुनिक बावड़ी का निर्माण करीब 45 वर्ष पहले, वांकानेर महल में, निजी उपयोग और आरामगाह के लिये किया गया था।

सीएसई से वर्ष 1998 में प्रकाशित पुस्तक ‘बूँदों की संस्कृति’ से साभार
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