अब भी कुछ सुबहें ऐसी होती हैं, जब आंचर झील पर रोशनी धीरे-धीरे उतरती है। श्रीनगर के उत्तरी छोर पर बसे सौरा से देखने पर झील शांत दिखाई देती है। आंचर झील कभी गिलसर और खुशाल सर जैसी आर्द्रभूमियों से जुड़ी थी। अमीर ख़ान नाला इसे डल झील तक ले जाता था। यहां कमल की डंडियां उगती थीं और प्रवासी पक्षी ठहरते थे।
हांजी समुदाय के लोग लकड़ी की नावों में इसी भरोसे के साथ उतरते थे कि झील उनकी ज़िंदगी संभाले रखेगी। आंचर सिर्फ़ एक जलाशय नहीं थी। यह सिंध नदी डेल्टा का जीवित हिस्सा थी और मछलियों, पक्षियों और पीढ़ियों पुरानी परंपराओं का घर भी।
श्रीनगर के शहरी क्षेत्र में फैलाव के साथ आर्द्रभूमियां सिमटती चली गईं। झील के पश्चिमी किनारे पर अचन लैंडफिल धीरे-धीरे फैलता गया और एक के बाद एक आर्द्रभूमि को निगलता चला गया। जो झील कभी डल झील के अतिरिक्त पानी को संभालती थी और हज़ारों लोगों की रोज़ी-रोटी का सहारा थी, आज वही झील प्रदूषण और उपेक्षा से जूझ रही है। कचरे और गंदे पानी ने इसके जीवन को दबा दिया है।
अब पानी पहले से ज़्यादा काला है। जाल लौटते हैं तो उनमें मछलियां कम होती हैं। हर साल कचरे की बदबू और दूर तक फैलती चली जाती है। जो जगह कभी जीवन से भरी रहती थी, वह अब पहले जैसी नहीं रही।
आंचर झील के सुस्त, थमे हुए पानी से अपने जाल खींचते हुए 49 वर्षीय मछुआरे फ़ारूक़ अहमद डार कहते हैं, “एक वक़्त था जब दिन भर में क़रीब दस किलो मछली निकल आती थी, इतनी कि घर चल सके। आज जाल खाली ऊपर आते हैं।”
डार नाव में भीगी रस्सी समेटते हैं और फिर धीरे-धीरे अपना दुख बताते हैं, “मछलियां तो पूरी तरह ग़ायब हो गई हैं। जो थोड़ी-बहुत मिलती भी हैं, वो बीमार और काली होती हैं। ख़रीददार उन्हें लेने से मना कर देते हैं। मेरे अपने बच्चे भी अब इस पानी की मछली नहीं खाते। हमारे तीन बेटे और दो बेटियां हैं। दोनों बेटियों की शादी हो चुकी है। बेटे अब मज़दूरी करते हैं। मछली पकड़कर अब घर नहीं चल पाता। यह झील कभी हमारे परिवार को ज़िंदा रखती थी, आज हमें भूखा ही छोड़ देती है।
जो झील कभी डल झील के अतिरिक्त पानी को संभालती थी और हज़ारों लोगों की रोज़ी-रोटी का सहारा थी, आज वही झील प्रदूषण और उपेक्षा से जूझ रही है। कचरे और गंदे पानी ने इसके जीवन को दबा दिया है।
पास ही 54 साल के नज़ीर अहमद कोंडू (बदला हुआ नाम) को आज तीसरे दिन भी खाली जाल, पंज़र डंडा और मछली की टोकरी लेकर लौटना पड़ रहा है। उन्होंने पंद्रह साल की उम्र में अपने पिता से मछली पकड़ना सीखा था और उन्हें आज भी वह भरी-पूरी झील साफ़-साफ़ याद है।
वे कहते हैं, “नब्बे के दशक में मैं काशिर गाड़ पकड़कर रोज़ के हज़ार से बारह सौर रुपये कमा लेता था। जिससे हमारे दस लोगों के परिवार का पेट आराम से भर जाता था। आज तो गुज़ारा करना भी मुश्किल हो गया है।”
कोंडू का परिवार पीढ़ियों से आंचर झील में मछली पकड़ता रहा है। अब यह परंपरा टूट रही है। खर्च को पूरा करने के लिए अब उनकी पत्नी सोंद्री को भी झील के किनारों पर काम करना पड़ता है। वे पानी पर तैरते कचरे के ढेरों की ओर इशारा करते हुए कहती हैं, “मैं अब घर पर बैठ कर नहीं रह सकती क्योंकि हमारा गुजारा नहीं हो रहा। यह झील अब जीने के लिए काम की जगह बन गई है।”
दिन भर की मेहनत के बाद उन्हें लगभग 300 से 400 रुपये मिलते हैं। यह उस कमाई का बस एक छोटा-सा हिस्सा है जो कभी मछली पकड़ने से हो जाया करती थी।
डार और कोंडू की कहानियां अलग-अलग हैं, लेकिन झील की हालत एक जैसी है। लोग जो कह रहे हैं, वही तस्वीर आंकड़े भी सामने रखते हैं। मछुआरों के मुताबिक़, नब्बे के दशक में झील से रोज़ 800-1000 किलो मछली निकल आती थी। आज पूरे दिन की पकड़ मिलाकर भी 50 किलो मुश्किल से होती है, और उसमें से भी ज़्यादातर बिकती नहीं।
झील के पश्चिमी किनारे पर अचन लैंडफिल लगातार फैलता जा रहा है। हर दिन कचरे से भरे ट्रक यहां आकर कचरा डालते हैं। इस कचरे से ज़हरीला पानी निकलता है। यह पानी मिट्टी में घुलता है और नालों के रास्ते झील तक पहुंच जाता है।
सदियों तक आंचर झील लगभग 19 वर्ग किलोमीटर में फैली रही। दर्जनों गांवों इसकी परिधि में बसे थे और हज़ारो परिवार इसी पर निर्भर थे। यही झील बाज़ारों को चलाती थी, परंपराओं को जीवित रखती थी और कश्मीर की खाद्य अर्थव्यवस्था की धड़कन बनी हुई थी।
कभी आंचर झील के चारों ओर दर्जनों गांव बसे थे और हज़ारों परिवार इसी झील पर निर्भर थे। आज झील सिमटकर करीब सात वर्ग किलोमीटर रह गई है। बचे हुए हिस्से में जलकुंभी फैल चुकी है और सतह पर सीवर व कचरे का गंदा पानी तैरता रहता है।
वैज्ञानिकों के अनुसार पहले करीब 600 परिवार नद्रू की खेती करते थे। इसके अलावा लगभग 1,000 परिवार झील से जुड़े दूसरे कामों पर निर्भर थे। अब यह पूरी व्यवस्था लगभग ख़त्म हो चुकी है।
फ़ारूक डार का बड़ा बेटा, गफ़्फार, आंचर झील के किनारे सब्ज़ियों की खेती करता है। कभी उसके खेत के पालक और दूसरी हरी सब्जियों की मांग श्रीनगर के लगभग रेस्तरां में थी। लेकिन अब ग्राहक उन्हें लेने से मना कर देते हैं।
गफ़्फार ज़हरीले रिसाव से दूषित हो चुकी मिट्टी पर खड़े होकर बताता है, “उनका कहना है कि हमारी सब्ज़ियों से अब बदबू आती है। लाल चौक की मंडी में व्यापारी पूछते हैं कि सब्ज़ी कहां की है। अगर हम आंचर का नाम लेते हैं, तो वे खरीदने से मना कर देते हैं। पिछले पांच साल में मेरी आमदनी आधी हो गई है।”
अचन लैंडफिल का ज़हरीला पानी अब सिंचाई नहरों में पहुंच रहा है। यही पानी खेतों तक जाता है। इससे फसलें खराब हो रही हैं। आंचर झील आज काली और बेजान पड़ी है, और उसके साथ ही सैकड़ों परिवारों की आजीविका भी समाप्ति की राह पर है।
फ़ारूक़ डार कहते हैं, “पीढ़ियों तक हमारी ज़िंदगी आंचर झील की लय के साथ चलती रही है। सर्दियों में, जब पानी ठंडा हो जाता है, हम अपनी लकड़ी की नावें लेकर ‘चाय-ए-गर्द शिकार’ किया करते हैं। इसमें परछाईं से मछली पकड़ी जाती है।
मछली पकड़ने की यह कला हमें हमारे बुज़ुर्गों ने सिखाई। इसके लिए हम कपड़े के नीचे छिप जाते हैं, पानी पर अपनी परछाईं डालते हैं और मछलियों के पास आने का इंतज़ार करते हैं, ठीक वैसे ही, जैसे हमारे पिता और दादा किया करते थे। लेकिन आज झील से हमें वैसा कुछ नहीं मिलता, जो कभी यह हमें दिया करती थी। प्रदूषण ने उसकी आत्मा को ज़हर से भर दिया है।
मछलियां कम होती जा रही हैं, पानी का कालापन बढ़ गया है, और शायद हमारी आने वाली पीढ़ियां इस परंपरा के उस गर्व को कभी जान ही न पाएंगी जो जो कभी हमारी ज़िंदगी का तरीका था, हमारी संस्कृति थी, झील से हमारा रिश्ता था। वह सब कुछ अब हमारी आंखों के सामने ही धुंधला पड़ता जा रहा है।”
पीढ़ियों तक हमारी ज़िंदगी आंचर झील की लय के साथ चलती रही है। सर्दियों में, जब पानी ठंडा हो जाता है, हम अपनी लकड़ी की नावें लेकर ‘चाय-ए-गर्द शिकार’ किया करते हैं।फ़ारूक़ डार, स्थानीय मछुआरा, आंचार झील इलाक़ा, श्रीनगर
मिट्टी की जांच में अब बढ़ता ज़हरीलापन सामने आने लगा है। भारी धातुओं के कण, प्लास्टिक के टुकड़े और रासायनिक अवशेष अब खेतों की मिट्टी का स्थायी हिस्सा बन चुके हैं। लोगों का कहना है कि फसलों का स्वाद बदल गया है। रेस्तरां के मालिक सब्ज़ियों में कड़वाहट की शिकायत करते हैं।
घर के रसोइयों को भी यह बदलाव महसूस होने लगा है। जो नाले कभी साफ़ पानी से भरे होते थे, अब उनमें काले पानी बहता है। हर मौसम के साथ किसानों की पैदावार कमजोर होती जा रही है, और उनके पास सस्ते विकल्प भी नहीं हैं।
अचन लैंडफिल 1986 से श्रीनगर का मुख्य कचरा स्थल है। यह 123 एकड़ में फैला हुआ है और हर दिन यहां लगभग 550 टन कचरा डाला जाता है। इस जमा हो रहे कचरे का केवल एक छोटा हिस्सा ही संसाधित हो पाता है, और बाकी कचरा इकट्ठा होकर ढेर में बदलता जा रहा है।
नगर निगम ने 11 लाख मीट्रिक टन पुराने कचरे की मौजूदगी की बात मानी है और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के सामने तीन साल की सफाई योजना का प्रस्ताव रखा है।
इस योजना में रिसाव का उपचार, पेड़ लगाना, बायो-माइनिंग - एक ऐसी प्रक्रिया जिसमें पुराने कचरे से जैविक तरीकों से उपयोगी सामग्री निकाली जाती है - और रिसॉर्स-डराइव्ड ईंधन परियोजनाएं शामिल हैं।
जम्मू-कश्मीर प्रदूषण नियंत्रण समिति ने भी पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के उल्लंघन के लिए आठ पूर्व नगर आयुक्तों के खिलाफ कार्रवाई शुरू की है।
इस लैंडफ़िल से निकलने वाली यह दुर्गंध कई किलोमीटर तक फैल रही है और मछुआरों और किसानों की ज़िंदगी पर असर डाल रही है। लाल चौक के व्यापारी झील के किनारे उगाई गई सब्ज़ियां लेने से मना कर देते हैं। ग्राहक आंचर झील से पकड़ी गई मछली नहीं खरीदते, जिससे परिवारों को आजीविका के लिए वैकल्पिक काम ढूंढ़ने पड़ रहे हैं।
साल 2022 के एक अध्ययन में प्रदूषण के फैलाव को दर्ज किया गया। यह दिखा कि रिसाव 26 हेक्टेयर क्षेत्र तक फैल चुका है। इसमें झील और भूजल के वे सभी स्रोत शामिल हैं जिन पर गांव के लोग निर्भर हैं।
एसकेयूएएसटी के सहायक प्रोफ़ेसर फिरोज़ अहमद भट मछलियों की संख्या में आई गिरावट का कारण बताते हैं। वे कहते हैं, “पास के कृषि क्षेत्रों से आने वाले कीटनाशक झीलों में प्रवेश कर जाते हैं, जो मछली प्रजनन के लिए ख़तरा पैदा करते हैं। अगर पर्यावरण ही अनुकूल नहीं होगा तो उत्पादन बढ़ाना संभव नहीं हो सकेगा।”
वैज्ञानिक और शोधकर्ता आंचर झील की हालत पर लगातार चेतावनी दे रहे हैं। नज़ीर अहमद कोंडू बताते हैं, “अचन लैंडफिल से निकलने वाले रिसाव में भारी धातुएं, प्लास्टिक और रोगजनक तत्व बड़ी मात्रा में पाए गए हैं। जब यह मिश्रण झील के पानी में पहुंचता है, तो मछलियों और दूसरे जलीय जीवों के लिए हालात और ख़राब हो जाते हैं।”
इस्लामिक यूनिवर्सिटी ऑफ़ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के कुलपति प्रोफ़ेसर शकील अहमद रोमशू के मुताबिक, आंचर झील उन आर्द्रभूमियों में शामिल है जो शहरीकरण और मानवीय दबाव के कारण सबसे ज़्यादा प्रभावित हुई हैं। वे कहते हैं कि “सुधार संभव है, लेकिन इसके लिए हर झील के लिए अलग और गंभीर संरक्षण योजना की ज़रूरत होगी।”
आंकड़े भी यही कहानी कह रहे हैं। श्रीनगर हर दिन 525 टन कचरा पैदा करता है। जम्मू और कश्मीर के शहरों में यह संख्या 1,500 टन प्रतिदिन तक पहुंच जाती है। साल 2021-22 में अधिकारियों ने केवल 606 टन कचरा संसाधित किया। बाकी कचरा अचन जैसी जगहों पर डाल दिया गया।
इसका सीधा असर आंचर झील पर देखा जा सकता है। सतह पर मीथेन के बुलबुले उभरते हैं, और किनारे काले कीचड़ से ढक चुके हैं। झील का विस्तार 19.4 वर्ग किलोमीटर से घटकर 6.8 रह गया है। वैज्ञानिकों की चेतावनी है कि अगर कचरा डालना ऐसे ही जारी रहा, तो कुछ ही सालों में झील पूरी तरह नष्ट हो सकती है।
आंकड़े दिखाते हैं कि प्रदूषण स्तर सुरक्षित सीमा से बहुत ऊपर है। मिट्टी में भारी धातुओं के कण अंतरराष्ट्रीय मानकों से 300 प्रतिशत ज़्यादा हैं। पानी के नमूनों में प्लास्टिक, रसायन और बैक्टीरिया पाए गए हैं, जिससे सिंचाई भी खतरनाक हो गई है।
सरकारी अधिकारी पिछले कई सालों से समाधान का वादा करते आ रहे हैं। साल 2017 में, राज्य कैबिनेट ने अचन के लिए एक वेस्ट-टू-एनर्जी प्लांट को मंज़ूरी दी थी। आठ साल बीत जाने के बाद भी यह परियोजना शुरू नहीं हो सकी। इस बीच लैंडफिल का आकार और झील पर दबाव दोनों बढ़ते चले गए।
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने कई बार सख़्त निर्देश दिए हैं और 12 करोड़ रुपये का पर्यावरणीय मुआवज़ा भी लगाया है। इनमें प्रकृति की मदद से ही प्रदूषण को दूर करने वाले बायोरिमीडिएशन को अपनाने, रिसाव के उपचार और पेड़ लगाने जैसे वादे शामिल हैं। लेकिन स्थानीय लोगों का कहना है कि ज़मीन पर हालात अब भी वैसे ही हैं।
कोंडू कहते हैं, “हमन पिछले बीस सालों यही वादे सुनते आ रहे हैं, हर साल नई घोषणाएं होती हैं, लेकिन समस्याएं ज्यों की त्यों बनी हुई हैं। इस बीच हमारी झील मरती जा रही है और हमारे परिवार के सामने भूख का संकट खड़ा हो गया है।”
लेक कंज़र्वेशन एंड मैनेजमेंट अथॉरिटी ने नालों की सफ़ाई को नज़रअन्दाज़ किया है। जिन नालों में कभी पहाड़ियों का ताज़ा पानी बहता था, अब उनमें प्लास्टिक का कचरा और कीचड़ बहता रहता है।
नाम न छापने की शर्त पर, श्रीनगर नगर निगम के एक अधिकारी ने बताया कि फंड की देरी, तकनीकी समस्याएं और नौकरशाही अड़चन इसके कारण हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि बैठकों और रिपोर्टों के सिवा ज़मीन पर कुछ नहीं बदला, जबकि संकट गहराता जा रहा है।
लेक कंज़र्वेशन एंड मैनेजमेंट अथॉरिटी ने नालों की सफ़ाई को नज़रअन्दाज़ किया है। जिन नालों में कभी पहाड़ियों का ताज़ा पानी बहता था, अब उनमें प्लास्टिक का कचरा और कीचड़ बहता रहता है। कभी-कभी सफ़ाई करने पर कचरा किनारों पर फेंक दिया जाता है जो बारिश के पानी के साथ बहकर फिर से उन्हीं जलधाराओं में चली जाती है।
संपर्क करने पर, शुरू में श्रीनगर नगर निगम के कमिश्नर ने समय मांगा, लेकिन बाद में उन्होंने कॉल लेना और जवाब देना बंद कर दिया।
पारिस्थितिकीय पतन कई पीढ़ियों को बर्बाद कर रहा है। फ़ारूक डार मछुआरों के अपने परिवार की तीसरी पीढ़ी से हैं। उनके पिता इन जलाशयों में मछली पकड़ते थे, और उनके दादा ने आंचर की संपदा पर परिवार का व्यवसाय बनाया था। लेकिन अब उन्हें अपने बेटों को आजीविका के दूसरे साधन खोजने के लिए कहना पड़ रहा है।
झील के साथ डूबती पीढ़ियां: डार कहते हैं, “हम पिछली तीन पीढ़ी से मछली पकड़कर ही अपना परिवार पाल रहे हैं। अब मैं अपने बेटों को सलाह देता हूं कि वे कहीं और जाएं और नए रोज़गार की तलाश करें। इस जहरीले पानी में अब आगे का कोई रास्ता नहीं दिखता।”
आंचर झील के आसपास के गांवों से युवा पलायन कर रहे हैं। कुछ मौसमी काम के लिए दूसरे क्षेत्रों में जाते हैं, तो कुछ शहरों में निर्माण कार्य ढूंढ़ते हैं। पलायन कर रहे हर व्यक्ति के साथ मछली पकड़ने, नद्रू की खेती, सब्ज़ी के बागान और झील आधारित कृषि का पारंपरिक ज्ञान अपना अस्तित्व खोता जा रहा है।
जो परिवार कभी मौसमी फसलों से होने वाली आमदनी से अपना जीवन चलाते थे, अब गरीबी से जूझ रहे हैं। नद्रू तैयार करने के बाद उसे बेचकर अपनी आजीविका चलाने वाली महिलाओं की आमदनी का रास्ता बंद हो चुका है।
बुज़ुर्ग मछुआरे स्थिति के अनुसार ख़ुद को ढाल नहीं पा रहे नतीजतन उन्हें अपने रिश्तेदारों पर निर्भर होना पड़ता है। झील के साथ-साथ समुदाय भी टूट रहा है। जैसे पारिस्थितिकी बिखर रही है। कभी झील के इर्द‑गिर्द अपनी ज़िंदगी व्यवस्थित करने वाले गांव अब उसके ज़हरीले पानी से दूर हो रहे हैं।
हर साल झील और छोटी हो रही है और उधर लैंडफिल का दायरा बढ़ता जा रहा है। नतीजतन इस पर निर्भर परिवार आजीविकाओं के उन स्रोतों को छोड़ने पर मजबूर हैं, जो उन्हें उनके पूर्वजों से मिली थीं।
आंचर का विनाश जम्मू और कश्मीर में कचरा प्रबंधन की बड़ी समस्याओं को उजागर करता है। पिछले पांच सालों में इस क्षेत्र में 2 लाख 25 हज़ार टन प्लास्टिक कचरा जमा हुआ। कचरा संग्रह और पुनर्चक्रण में असमान प्रगति रही है। यहां 32 मटेरियल रिकवरी फैसिलिटी मौजूद हैं, लेकिन श्रीनगर का मुख्य लैंडफिल झील को लगातार प्रदूषित कर रहा है।
बायो-मेडिकल कचरा प्रदूषण में इज़ाफ़ा कर रहा है। रिपोर्टों में दिखता है कि अक्सर मेडिकल और सामान्य कचरे को एक साथ फेंक दिया जाता है। आसपास के अस्पताल इस वजह से चिंता का कारण बने हुए हैं। स्थानीय निवासियों का कहना है कि बिना सही तरीके से निपटाए गया कचरा पूरे इलाके की आबादी के लिए ख़तरा है।
डार पूछते हैं, “अधिकारियों ने साल 2017, 2019 और 2022 में वही वादे किए। हर साल नई समय सीमा और पुरानी समस्याएं आती हैं। भूख से जूझ रहे परिवारों का पेट क्या इन वादों से भर सकता है?”
अपने ज़हरीले खेतों के किनारे खड़े होकर डार आंचर की काली जलधारा को निहारते हैं और बोलते हैं, “यह झील सदियों तक हमें जीवन देती रही, अब यह हमें मौत दे रही है। इसके बावजूद भी इनके पास देने के लिए वादों के सिवा कुछ नहीं है।”
कार्रवाई में होने वाली हर देरी जीवन, भविष्य और कश्मीर की प्राकृतिक धरोहर की कीमत वसूल रही है। आंचर झील के लिए समय कम होता जा रहा है। और उन लोगों के लिए भी, जिन्होंने कभी इसके पानी को अपना घर समझा था।
अस्वीकरण
लोगों के नाम बदल दिए गए हैं क्योंकि प्रशासनिक कार्रवाई का डर था। कई लोगों ने असली तस्वीरें और नाम साझा करने से मना किया या बाद में वापस ले लिया।
इंडिया वाटर पोर्टल रीजनल स्टोरी फेलोशिप 2025 तहत लिखी गई वाहिद भट की रिपोर्ट के इस दूसरी किस्त का यह अनुवाद डॉ. कुमारी रोहिणी ने किया है।