अप्रैल-2022 में, माननीय प्रधानमंत्री जी ने "अमृत सरोवर" मिशन का शुभारंभ किया, जिसमें देश के प्रत्येक जिले में कम से कम 75 अमृत सरोवर (तालाबों) का निर्माण करना था। मई-2022 में पर्यावरण मंत्रालय ने आर्द्रभूमियों के संरक्षण और विवेकपूर्ण उपयोग के लिए 'मिशन सहभागिता' को शुरू किया था। यह मिशन समाज और सरकार के सामूहिक दृष्टिकोण पर आधारित है, जो समुदायों और प्राथमिक हितधारकों को साथ लाने हेतु प्रतिबद्ध है। फरवरी, 2023 में मिशन सहभागिता के तहत प्रारम्भ किये गये 'सेव वेटलैंड्स/आर्द्रभूमि बचाओ अभियान' के उद्देश्यों में आर्द्रभूमि संरक्षण को एक जन आंदोलन बनाना, आर्द्रभूमियों के संरक्षण के लिए आर्द्रभूमि मित्रों की साझेदारियों को बनाना, हितधारकों में गौरव और स्वामित्व को बढ़ावा देना ताकि स्वस्थ आर्द्रभूमियों के लिए स्थायी जीवन शैली को अपनाया जा सके और आर्द्रभूमियों के विवेकपूर्ण उपयोग को प्रोत्साहित किया जा सके, पर्यावरण अनुकूल जीवनशैली (आर्द्रभूमियों के प्रति समर्पित जीवन के माध्यम से आर्द्रभूमि संरक्षण में भारत के नेतृत्व को स्थापित करना, जैव विविधता और कार्बन संचयन को बढ़ावा देना, रामसर स्थलों का प्रभावी प्रबंधन करने के लिए उनके विवेकपूर्ण उपयोग का मॉडल बनाने के लिए उन्हें सशक्त बनाना आदि सम्मिलित हैं। )
पर्यावरण मंत्रालय ने पर्यटन और अन्य आजीविका के अवसरों के विकास के साथ-साथ रामसर स्थलों के विवेकपूर्ण उपयोग एवं अद्वितीय संरक्षण मूल्यों और सेवाओं के महत्व को स्वीकार करते हुए, उनके प्रोत्साहन के लिए 'अमृत धरोहर' पहल जून-2023 में की थी। यह पहल चार मुख्य घटकों अर्थात् पर्यावास संरक्षण, आर्द्रभूमि आजीविका, प्रकृति पर्यटन और आर्द्रभूमि कार्बन मूल्यांकन' पर केंद्रित है। अमृत धरोहर योजना विभिन्न विभागों/संस्थानों की योजनाओं/कार्यक्रमों और समुदायों की सहायता से कार्यान्वित की जा रही है। यह दीर्घकालिक कार्यान्वयन रणनीति, 'सहभागिता से संरक्षण और संरक्षण से सहभागिता से संरक्षण और संरक्षण से समृद्धि' के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता का एक और उदाहरण है। ठोस परिवर्तन के लिए 'संपूर्ण सरकार और संपूर्ण समाज' वाला दृष्टिकोण समय की मांग है। अमृत धरोहर के 'संरक्षण और सतत प्रबंधन के लिए संपूर्ण समाज' दृष्टिकोण को आगे बढ़ाने के लिए मिशन सहभागिता का मसौदा तैयार किया गया है।
पर्यावरण मंत्रालय ने भारत सरकार के 169 परिवर्तनात्मक विचारों के तहत 100 आर्द्रभूमियों के पुनर्जीवन कार्यक्रम को देश के सभी जिलों तक पहुंचाते हुए, 1,000 आर्द्रभूमियों के पुनर्वास और कायाकल्प का लक्ष्य रखा है। कार्यक्रम के प्रथम चरण में, राज्य सरकारों के परामर्श से 130 आर्द्रभूमियों को चयनित किया गया था। 100 दिनों की कार्यान्वयन अवधि में, आधारभूत जानकारी का संग्रह और आर्द्रभूमि की स्थिति का त्वरित मूल्यांकन कर, 33 संवेदनशील आर्द्रभूमियों की सूची बनाई गई। यह कार्यक्रम एन.पी.सी.ए. संरचना के अंतर्गत मानकीकृत चार-आयामी दृष्टिकोणों
(क) आधारभूत मूलभूत जानकारी का विकास
(ख) पारिस्थितिकी तंत्र का त्वरित मूल्यांकन,
(ग) सहयोगी और भागीदारी प्रबंधन को सक्षम व संभव बनाने के लिए हितधारक मंच और
(घ) आर्द्रभूमियों की जैव विविधता और पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं, मूल्यों और खतरों का आंकलन एवं संबोधन करने वाली एकीकृत आर्द्रभूमि प्रबंधन योजना पर आधारित है।
आर्द्रभूमियाँ कई केंद्रीय विधानों और नियमों से संरक्षित है। पर्यावरण मंत्रालय ने वेटलैंड्स (संरक्षण और प्रबंधन) नियम, 2017 को पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के प्रावधानों के तहत अधिसूचित किया है, जो देश के सभी अधिसूचित रामसर आर्द्रभूमियों पर लागू हैं। इन प्रावधानों के अनुरूप, प्रत्येक राज्य और केंद्र शासित प्रदेश के अधीन मुख्य नीति और नियामक निकायों के रूप में, राज्य संघ राज्य क्षेत्र वेटलैंड प्राधिकरण के गठन/स्थापना का प्रावधान है, जो सभी आर्द्रभूमियों के संरक्षण के लिए उत्तरदायी है। इस प्राधिकरण में जलविज्ञान, सामाजिक अर्थशास्त्र, मत्स्य पालन और आर्द्रभूमि पारिस्थितिकी के एक-एक विशेषज्ञ तथा प्रशासकीय अधिकारी सम्मिलित होंगे। वे 'बुद्धिमानीपूर्ण उपयोग के सिद्धांत' का निर्धारण करेंगे, जो आर्द्रभूमि के प्रबंधन को निर्देशित करेगा। 'बुद्धिमानीपूर्ण उपयोग' को संरक्षण के साथ संगत 'स्थायी उपयोग के सिद्धांत' के रूप में भी परिभाषित किया जा सकता है। आर्द्रभूमि की पहचान करने का दायित्व राज्यों का होगा। नए नियमों में विकेंद्रीकृत दृष्टिकोण अपनाया गया है, ताकि क्षेत्रीय आवश्यकताओं को पूर्ण किया जा सके और राज्य अपनी प्राथमिकताओं को निर्धारित कर सकें। ज्यादातर निर्णय प्राधिकरण द्वारा लिए जाएंगे, जिसकी निगरानी राष्ट्रीय वेटलैंड समितिः करेगी। नए नियमों में 'आर्द्रभूमि' की परिभाषा से बैकवाटर, लैगून, खाड़ियाँ और मुहाना जैसे जल निकायों को हटा दिया गया है। पुराने संस्करण (2010) में 'सेंट्रल वेटलैंड रेगुलेटरी अथॉरिटी - केंद्रीय वेटलैंड नियामक प्राधिकरण (सी.डब्ल्यू.आर.ए.) का प्रावधान था, लेकिन 2017 के संशोधित वैधानिक ढाँचे ने इसे राज्य-स्तरीय निकायों से बदल दिया और 'एन.डब्ल्यू.सी.' की स्थापना की अनुशंसा की, जो एक सलाहकार की भूमिका अदा करेगी। एन.डब्ल्यू.सी., सी.डब्लू.आर.ए. की जगह लेगी और इसका नेतृत्व पर्यावरण मंत्रालय के सचिव महोदय द्वारा किया जाएगा। NWC के नियम आर्द्रभूमि के भीतर पुनर्ग्रहण, आसपास उद्योग स्थापित करने, ठोस अपशिष्ट डंपिंग, खतरनाक पदार्थों के निर्माण या भंडारण, अनुपचारित अपशिष्टों के निर्वहन, स्थायी निर्माण आदि गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाते हैं। यह उन गतिविधियों को भी नियंत्रित करते है, जिन्हें राज्य सरकार की सहमति के बिना अनुमति नहीं दी जाती जैसे द्रवीय परिवर्तन, अस्थिरचराई, प्राकृतिक उत्पादों की कटाई, उपचारित अपशिष्टों का निर्वहन, जलीय कृषि, कृषि और ड्रेजिंग आदि। आर्द्रभूमि संरक्षण कार्यक्रमों का समग्र समन्वय केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है, जो राज्य सरकारों को दिशानिर्देश प्रदान करने के साथ वित्तीय और तकनीकी सहायता भी प्रदान करती है।
संरक्षण एवं प्रबंधन अधिनियम के अन्तर्गत विनियमित आर्द्रभूमियों को रामसर कन्वेंशन के तहत चयनित तथा यूनेस्को से विश्व धरोहर के रूप में मान्यता प्राप्त आर्द्रभूमियाँ, पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील पर्यावरणीय आर्द्रभूमियाँ जैसे कि राष्ट्रीय उद्यान आदि, समुद्र तल से 2500 मी. से कम ऊँचाई पर स्थित आर्द्रभूमियाँ, जिनका क्षेत्रफल≥ 500 हेक्टेयर या उससे अधिक है, समुद्र तल से 2500 मी. की या उससे अधिक ऊँचाई पर स्थित आर्द्रभूमियाँ, जिनका क्षेत्रफल ≥ 5 हेक्टेयर है, तथा प्राधिकरण द्वारा चिन्हित आर्द्रभूमियों में वर्गीकृत किया गया है। नदी धाराओं और सिंचाई टैंकों को आर्द्रभूमि नियमों के तहत संरक्षण से विमुक्त रखा गया है। राष्ट्रीय वन्यजीव कार्य योजना (2017-2031) ने अंतर्देशीय जलीय पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण को 17 प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के रूप में चिन्हित किया है और 'राष्ट्रीय वेटलैंड्स मिशन' और 'राष्ट्रीय वेटलैंड्स जैव विविधता रजिस्टर' के विकास को मुख्य हस्तक्षेप के रूप में दृष्टिगत किया है। जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (एन.ए.पी.सी.सी.) के 'राष्ट्रीय जल और हरित भारत मिशन' में आर्द्रभूमियों का संरक्षण और स्थाई प्रबंधन शामिल है।
इसके अलावा, भारतीय वन अधिनियम (1927), वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम (1972), वन (संरक्षण) अधिनियम (1980), वन्यजीव (संरक्षण) संशोधन अधिनियम (1991), संशोधित राज्य वन अधिनियम, और तटीय विनियमन क्षेत्र अधिसूचना (2011), जैसे नियमों और अधिनियमों की विभिन्न प्रावधानिकताएं रामसर स्थलों सहित, जंगलों और नामित संरक्षित क्षेत्रों के भीतर स्थित आर्द्रभूमियों के लिए नियामक ढाँचा परिभाषित करती हैं। इसी प्रकार, भारतीय मत्स्य अधिनियम (1897); जल (प्रदूषण और नियंत्रण) अधिनियम (1974); जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम (1974); प्रादेशिक जल, महाद्वीपीय शेल्फ, विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र और अन्य समुद्री क्षेत्र अधिनियम (1976); जल उपकर अधिनियम (1977); भारत का समुद्री क्षेत्र (विदेशी जहाजों द्वारा विनियमन और मछली पकड़ना) अधिनियम (1980); पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम (1986); जैव विविधता अधिनियम (2002); और अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम (2006) भारतीय आर्द्रभूमियों के संरक्षण के लिए अप्रत्यक्ष रूप से कानूनी और नियामक शर्ते प्रदान करते हैं (एम.ओ.ई.एफ., 2007)।
पर्यावरण मंत्रालय ने आर्द्रभूमि प्रबंधन, निगरानी क्षमताओं में सुधार और संस्थागत संरचनाओं को मजबूत करने हेतु द्विपक्षीय और बहुपक्षीय अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के साथ साझेदारी की है, जिससे "राष्ट्रीय पारिस्थितिकी संरक्षण अधिनियम" के प्रभावी कार्यान्वयन में भी सहायता प्राप्त होती है। ज्ञानवर्धन और अनुसंधान पर्यावरण मंत्रालय का 'राष्ट्रीय वेटलैंड पोर्टल' (2021), आर्द्रभूमि संरक्षण और प्रबंधन में शामिल होने के लिए प्राधिकरणों, प्रबंधकों, प्रशासकों, निर्णायकों, छात्रों और देशवासियों के लिए एक ई-सूचना केंद्र एवं मंच के रूप में उपलब्ध है।
पोर्टल पर आर्द्रभूमियों की सूची, 600 से अधिक आर्द्रभूमियों का हेल्थ कार्ड, क्षमता विकास भागीदारी, शिक्षा एवं जागरूकता, दिशानिर्देश, ज्ञानवर्धक प्रकाशन सामग्री आदि उपलब्ध है।
आर्द्रभूमि प्रबंधकों के क्षमता विकास के लिए पर्यावरण मंत्रालय ने मिशन सहभागिता के माध्यम से तथा विशेषज्ञों के सहयोग से क्षेत्रीय तकनीकी कार्यशालाएं और समीक्षा बैठकें आयोजित की हैं। जिससे प्रबंधकों को सर्वोत्तम अभ्यासों, मुख्य चुनौतियों और मुद्दों पर चर्चा करने हेतु मंच मिलता है। जो विनियामक संरचनाओं और पहलों के कार्यान्वयन में मार्गदर्शक है।
निजी क्षेत्र आर्द्रभूमियों के संरक्षण में अग्रणी है। भारतीय व्यावसायिक और जैव विविधता पहल (भारतीय उद्योग परिसंघ द्वारा स्थापित) और पर्यावरण मंत्रालय के बीच एक सहयोग समझौता किया गया है, जिसका मुख्य उद्देश्य व्यवसायियों को आर्द्रभूमि के प्रबंधन और संरक्षण प्रयासों में भागीदार बनाना है।
अंतर्देशीय, तटीय, समुद्रीय प्राकृतिक वास की व्यापक श्रृंखला के साथ, नम और शुष्क दोनों वातावरण विशेषताओं से परिपूर्ण आर्द्रभूमियाँ प्राकृतिक जैव विविधता के अस्तित्व के लिए अति महत्वपूर्ण है। 'जैविक सुपरमार्केट' के रूप में प्रसिद्ध यह नाजुक आर्द्रभूमियाँ जैविक, रासायनिक और आनुवांशिक सामग्री के स्रोत, सिंक और परिवर्तक के रूप में अपना दायित्व भलीभाँति निभाती आ रही हैं। जल एवं अन्य आर्द्रभूमि संसाधनों पर बढ़ती निर्भरता, जिससे प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित जैव विविधता एवं प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर हैं। मानव अस्तित्व बचाए रखने के लिए जैव विविधता का सरंक्षण अपरिहार्य है।
शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में कई आर्द्रभूमियाँ मानवजनित दबाव के अधीन हैं, जिसमें जलग्रहण क्षेत्र में परिवर्तन; अतिक्रमण; उद्योगों और शहरों से बढ़ता प्रदूषण; पर्यटन; कृषि गहनता और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन आदि शामिल है, जो इन बहुमूल्य पर्यावरण-संतुलनकर्ताओं को विलुप्तता की ओर धकेल रहा है।
आर्द्रभूमियों के संरक्षण के प्रति समझ का अभाव देखा गया है। पर्यावरण शिक्षित समाज की कमी, अपर्याप्त प्रबंधन, कानून प्रवर्तन में देरी व लचीलापन, भ्रष्टाचार और कम निवेश का अधिक लाभ अर्जित करने की मानसिकता सतत विकास में असंतुलन पैदा करती है। इसके लिए समन्वित प्रयास आवश्यक हैं, आम जनता और स्थानीय हितधारकों को आर्द्रभूमियों के प्रति जागरूक कर उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने की आवश्यकता है। आर्द्रभूमि संरक्षण हेतु ऊर्जा, उद्योग, राजस्व, कृषि, मत्स्य पालन, परिवहन, पर्यटन तथा जल शक्ति मंत्रालय के प्रभावी समन्वय की आवश्यकता है, साथ ही राज्यों की सहभागिता भी महत्वपूर्ण है। शहरी तथा औद्योगिक विकास से उत्पन्न समस्याओं के विरूद्ध कानून प्रवर्तन/ त्वरित अनुपालन तथा भ्रष्टाचार के खिलाफ शून्य सहनशीलता की नीति अपनाई जानी चाहिए ताकि आर्द्रभूमि संरक्षण से कोई समझौता न हो। आर्द्रभूमि पारिस्थितिकी तंत्र स्वास्थ्य के आंकलन को आपदा योजना का हिस्सा बनाया जाना चाहिए तथा आर्द्रभूमि प्रबंधन योजनाओं में आपदा जोखिम को कम करने का एक अंतर्निहित घटक होना चाहिए। चिन्हित आर्द्रभूमियों के अलावा पारिस्थितिक रूप से महत्वपूर्ण अन्य आर्द्रभूमियों की पहचान कर, उन्हें भी संरक्षित किया जाना आवश्यक है। सुशासन और प्रबंधन के साथ अर्थशास्त्र, पर्यावरण, प्रकृति संरक्षण, विकास योजना में सरकारी नीतियों के बीच अनुरूपता आर्द्रभूमियों के संवर्धन हेतु आवश्यक है।
अधिकांश भारतीय शोध कार्य आर्द्रभूमि प्रबंधन के लिम्नोलॉजीकल (सरोविज्ञानिक) पहलुओं और पारिस्थितिक/पर्यावरण अर्थशास्त्र से संबंधित हैं। लेकिन, भौतिक (जैसे जलविज्ञान और भूमि-उपयोग परिवर्तन), सामाजिक-आर्थिक (जैसे जनसंख्या वृद्धि और आर्थिक गतिविधियों में परिवर्तन) और संस्थागत कारकों के कारण लिम्नोलॉजीकल परिवर्तनों पर पर्याप्त अनुसंधान नहीं हुआ है। भविष्य में इन्हीं वास्तविक कारकों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है, ताकि बढ़ते तनाव का सामना कर रही आर्द्रभूमियों के लिए बेहतर और व्यापक प्रबंधन रणनीतियों को निर्धारित करके शीघ्र क्रियान्वयन किया जा सके तथा आर्द्रभूमियों के क्षरण के लिए केवल जलवायु परिवर्तन को ही उत्तरदायी न ठहराया जाए। हालांकि, आर्द्रभूमि तंत्र में गिरावट या गिरावट की सीमा के बारे में ठोस अनुमान अभी तक स्थापित नहीं हुए हैं, क्योंकि ऐसी भविष्यवाणियाँ करने वाले जलवायु मॉडल पर्याप्त रूप से सुदृढ़ नहीं हैं। जल संसाधनों के संरक्षण की योजना बनाते समय जलीय पारिस्थितिकी तंत्र और आर्द्रभूमियों की पर्यावरणीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए। आर्द्रभूमि के जलग्रहण क्षेत्र की जलवैज्ञानिक और पारिस्थितिक अखंडता के लिए एक प्रभावी और उचित जल गुणवत्ता निगरानी योजना तैयार करने की आवश्यकता है। जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं पर आधारित प्रबंधन रणनीतियों का निर्धारण कर आर्द्रभूमियों का जलवायु अनुकूलन के प्रति लचीलापन बढ़ाया जा सकता है।
प्रस्तुत आलेख तीन भागों में है -
लेखकों से संपर्क करेंः डॉ. प्रविण रंगराव पाटील, डॉ. मनीष कुमार नेमा, डॉ. पी.के. मिश्रा एवं डॉ. ए.आर. सेन्थिल कुमार, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की (उत्तराखंड)