प्राचीन काल से मानव पादप समुदाय से जुड़े हुए हैं एवं इसकी महत्ता हमारे जीवन की प्रत्येक पहलु से जुड़ी हुई है। पौधों की पत्तियाँ, जड़ों एवं मुलकन्दों को अपने आहार के रूप में, वृक्षों की छाल एवं पत्तियों से अपना तन ढँकने में किया करते थे। उस समय जनसंख्या बहुत रहने के कारण आवश्यकताएँ भी सीमित थी एवं वनों को उपयोग नगण्य मात्र था, अतः वन-प्रबन्धन की आवश्यकता महसूस नहीं की गई। परन्तु दिनों बढ़ती आबादी व विभिन्न विकास कार्यों के लिये वनों पर निर्भरता से, वनों के ऊपर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगा जिससे वनों के प्रबन्धन की आवश्यकता महसूस की गई। विभिन्न कारण जिससे वन प्रबन्धन आवश्यक हो जाता है, निम्नलिखित हैः-
1. मनुष्य एवं पादप समुदाय के बीच सह-आस्तित्व का सम्बध के कारण।
2. बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु।
3. वन सम्पदाओं का अन्धाधुन्ध उपयोग। 4. कृषि एवं औद्योगिक विकास के कारण।
5. काष्ठ एवं गौण वनोपज को आय का जरिया बनाने के कारण
1. वन सम्पदाओं के सतत प्रवाह हेतु।
2. सतत वन प्रबन्धन को मजबूत करने हेतु।
3. सामाजिक वानिकी परियोजना को लाभप्रद बनाने हेतु।
4. सामाजिक आर्थिक ढाँचा मजबूत करने हेतु।
5. वन संरक्षण को कारगर बनाने हेतु।
6. राष्ट्रीय वन नीति 1988 के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु।
इस प्रबन्धन में वनों के इर्द-गिर्द रहने वाली समुदाय अपनी विभिन्न आवश्यकताओं यथा लघु काष्ठ, इमारती लकड़ी, कृषि-उपकरण की लकड़ी, जलावन की लकड़ी, वनौषधि सहित अन्य गौण वनोपज की पूर्ति हेतु वनों पर निर्भर रहते हैं एवं प्रबन्धन का पूर्ण दायित्व अपने स्तर से पारम्परिक रूप से करते हैं।
1. वनों के विकास के साथ-साथ समुदाय की आवश्यकताओं की पूर्ति हुई।
2. उपजाऊ वन भूमियों में कृषि विस्तार का अवसर मिला।
3. वन भूमियों का उपयोग चारागाह बनाने, एवं झूम कृषि करने हेतु।
4. वनों पर आधारित अर्थव्यवस्था का अभ्युदय हुआ।
1. वनों का तीव्र गति से ह्रास।
सामन्त वर्ग का अभ्युदय।
3. जन-साधारण वनों से प्राप्त होने वाली सुविधाओं से वंचित।
4. वनों के दोहन के लिये बिचौलियों का वन क्षेत्र में प्रवेश।
5. बिचौलियों द्वारा इमारती एवं अन्य वनोपज का व्यापार।
इन्हीं विफलताओं से निजात पाने के लिये भारत सरकार ने संयुक्त वन प्रबन्धन की शुरुआत की।
यह एक ऐसी सहभागी व्यवस्था है, जिसके अन्तर्गत वन विभागीय कर्मचारी एवं स्थानीय लोगों को वानिकी सम्बन्धी तमाम क्रियाकलापों में सम्मिलित किये जाते हैं और इसके बदले में वनों से प्राप्त आय एवं वन उत्पाद को वन समितियों एवं वन विभाग के बीच एक निश्चित अनुपात में वितरित किया जाता है।
1. सम्मिलित ग्रामीण मूल्यांकन तकनीक द्वारा सर्वेक्षण करके।
2. स्थानीय लोगों की आवश्यकताओं को चिन्हित करके।
3. पशुधन के प्रकार एवं संख्या का सर्वेक्षण करके।
4. वनों से प्राप्त सुविधाओं का सर्वेक्षण करके।
5. उनकी वनों पर निर्भरता एवं प्रकार का अध्ययन करके।
6. सामाजिक, आर्थिक एवं पर्यावरणीय विचार में समुचित पादप प्रजातियों का चयन करके।
7. आम जनता की भागीदारी सुनिश्चित करके।
8. गैर-सरकारी संस्थाओं की भागीदारी सुनिश्चित करके।
9. स्थानीय निकाय/वन समितियों की पहचान करके।
10. आम जनता एवं वन विभागीय कर्मचारियों को उत्तरदायित्व सौंपकर।
11. प्रशिक्षण देकर।
12. सुदृढ़ व्यापार का सूत्रपात कर।
13. वनों से प्राप्त लाभ का स्थानीय लोगों एवं वन विभाग के बीच समुचित बँटवारा करके।
पठारी कृषि (बिरसा कृषि विश्वविद्यालय की त्रैमासिक पत्रिका) जनवरी-दिसम्बर, 2009 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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2 | उर्वरकों की क्षमता बढ़ाने के उपाय (Measures to increase the efficiency of fertilizers) |
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4 | फसल उत्पादन के लिये पोटाश का महत्त्व (Importance of potash for crop production) |
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